भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"राग मज़हब का सुनाना आ गया / कुमार विनोद" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विनोद }} {{KKCatGhazal}} <poem> राग मज़हब का सुनाना आ गया …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:48, 17 मार्च 2010 के समय का अवतरण
राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया
देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया
सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया
ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया
कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया
दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया