भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"झरना रंग और सपने / कुमार सुरेश" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: झरना रंग और सपने <poem>सांझ लाल चुनरिया लहरा रही है अब वह काली ओढनी …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:50, 22 मार्च 2010 का अवतरण
सांझ लाल चुनरिया लहरा रही है
अब वह काली ओढनी ओढ़ेगी
सुबह पहन लेगी उजाला
सजना चाहती है वह चटक रंगों से
पृथ्वी सद्यः प्रसूता है
उसका ह्रदय द्रवित है संतान के लिए
संतान कि भूख उससे देखि नहीं जाती
सदा रहना चाहती है वह वत्सला
बहने कि आकांक्षा ही नदी है
नदी के पास सिर्फ मीठा पानी है
उसे पसंद नहीं सूखी धरती
वह भरना चाहती है गन्ने, गेहूं की बाली
और मकई के दाने में मिठास
स्त्री की आँख के भीतर झरना है
यह संसार सूखने से बचा हुआ है
स्त्री का ह्रदय रंगों से भरा है
दुनिया में चटक रंग बिखरे हैं
जीवन एक उत्सव है क्योंकि
माँ प्रेयसी और बेटी के रूप में
स्त्री है इस पृथ्वी पर