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"हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
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एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे  
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19:20, 28 मार्च 2010 का अवतरण

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा