भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन सलीक़े से उगा, रात ठिकाने से रही / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
[[Category:गज़ल]]
 
[[Category:गज़ल]]
दिन सलीक़े से उगा, रात ठिकाने से रही <br>
+
<poem>
 +
दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही  
 
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही  
 
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही  
  
 
+
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें  
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें <br>
+
 
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही  
 
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही  
  
 
+
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी  
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी <br>
+
 
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही  
 
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही  
  
 
+
फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को  
फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को <br>
+
 
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही  
 
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही  
  
 
+
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत  
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत <br>
+
 
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
 
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही
 +
</poem>

19:44, 28 मार्च 2010 के समय का अवतरण

दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही

फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही