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12:26, 11 अगस्त 2006 का अवतरण
लेखक: धर्मवीर भारती
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...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!