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दीन्यौ प्रेम-नेम-गरुवाई-गुन ऊधव कौं
हिय सौं हमेव-हरुवाई बहिराइ कै ।
कहै रतनाकर त्यौं कंचन तनाई काय
ज्ञान-अभिमान की तमाई बिनसाइ कै ॥
बातनि की धौंक सौं धमाई चहुँ कोदनि सौं
निज बिरहानल तपाइ पघिलाइ कै ।
गोप की बधूटी प्रेम-बूटी के सहारे मारे
चल-चित पारे की भसम भुरुकाइ कै ॥101॥