भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जहाँ जो कुछ भी अलक्षित / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: जहाँ जो कुछ भी अलक्षित रह गया है मैं वही हूँ, मौन और एकांत क्षण में…)
(कोई अंतर नहीं)

10:38, 15 अप्रैल 2010 का अवतरण

जहाँ जो कुछ भी अलक्षित रह गया है मैं वही हूँ, मौन और एकांत क्षण में । पेड़ से पत्ता गिरा था टूटकर तीर रहा था जलप्लावन में कभी फिर हुआ क्या? बैठ कर उसपर बची थी एक चींटी बाढ़ का थामना नियत था थम गई थी और चींटी को मिली धरती समूची सड़ गया पत्ता कहीं जो गड़ गया था मैं वही हूँ कहीं कुछ भी जो अलक्षित रह गया है मैं वही हूँ, मैं वही हूँ।