भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आह ! वेदना मिली विदाई / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | + | |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद |
+ | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <Poem> | ||
− | आह ! वेदना मिली विदाई | + | आह ! वेदना मिली विदाई |
− | मैंने भ्रमवश जीवन संचित, | + | मैंने भ्रमवश जीवन संचित, |
− | मधुकरियों की भीख लुटाई | + | मधुकरियों की भीख लुटाई |
− | छलछल थे संध्या के श्रमकण | + | छलछल थे संध्या के श्रमकण |
− | आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण | + | आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण |
− | मेरी यात्रा पर लेती थी | + | मेरी यात्रा पर लेती थी |
− | नीरवता अनंत अँगड़ाई | + | नीरवता अनंत अँगड़ाई |
− | श्रमित स्वप्न की मधुमाया में | + | श्रमित स्वप्न की मधुमाया में |
− | गहन-विपिन की तरु छाया में | + | गहन-विपिन की तरु छाया में |
− | पथिक उनींदी श्रुति में किसने | + | पथिक उनींदी श्रुति में किसने |
− | यह विहाग की तान उठाई | + | यह विहाग की तान उठाई |
− | लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी | + | लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी |
− | रही बचाए फिरती कब की | + | रही बचाए फिरती कब की |
− | मेरी आशा आह ! बावली | + | मेरी आशा आह ! बावली |
− | तूने खो दी सकल कमाई | + | तूने खो दी सकल कमाई |
− | चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर | + | चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर |
− | प्रलय चल रहा अपने पथ पर | + | प्रलय चल रहा अपने पथ पर |
− | मैंने निज दुर्बल पद-बल पर | + | मैंने निज दुर्बल पद-बल पर |
− | उससे हारी-होड़ लगाई | + | उससे हारी-होड़ लगाई |
− | लौटा लो यह अपनी थाती | + | लौटा लो यह अपनी थाती |
− | मेरी करुणा हा-हा खाती | + | मेरी करुणा हा-हा खाती |
− | विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे | + | विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे |
− | इसने मन की लाज गँवाई< | + | इसने मन की लाज गँवाई |
+ | </poem> |
13:53, 28 अप्रैल 2010 का अवतरण
आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई
छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई