भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<Poem>
दीवारें सिर्फ छप्‍पर साधने के लिए थीं
जगह-जगह दरवाजे दरवाज़े हमारे
खुले हुए थे
खिड़कियां खिड़कियाँ थींबारजे थे आंगने आँगने थे और छतेंसड़कों पर हम अक्‍सर मिल जाते थे.थे।
सुनने और कहने के लिए जो शब्‍द थे
उनमें अजन्‍में शब्‍दों की बड़ी गूंज गूँज थीदूर-दूर की आवाजेंआवाज़ें
हमारे पास प्रतिध्‍वनि की तरह आती थीं
हम खोए हुए अक्‍सर अपने आर-पार आते-जाते थे.थे।
हमारी मृत्‍यु होती थी
जन्‍मों से भरे इस संसार में हम
बार-बार जन्‍म लेते थे.थे।
हम खुले में लेट जाते थे तारे देखते थे
धूल पर उंगलियों उँगलियों से लकीरें खींचते थेनाम लिखते थे.थे।
धरती जहॉं जहाँ से पेड़ बनकर आना चाहती थीवहां वहाँ से हट जाते थेऔर चिडियों चिड़ियों के भीतर से गाते थे.थे।
अब एक पुरानी बस्‍ती
खस्‍ताहाल ख़स्‍ताहाल मकान गलियों के मुहानेभारी सदमे के झटपुटे में ढह रहे हैं.हैं।
हम एक गली में हैं लावारिस
चील कौवे धसकती मुंडेरों मुँडेरों पर बैठे हैंगर्दनें टेढ़ी किए.किए।
एक टूटी हुई खिड़की
हवा में झूल रही है
तारों की अवाक दूरियॉं बुझने-बुझने को हैं.हैं।</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,359
edits