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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार:[[=सुमित्रानंदन पंत]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह= स्वर्णधूलि / सुमित्रानंदन पंत]]}}~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~{{KKCatKavita}} {{KKCatGeet}}<poem>
सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
 
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
 :काले बादल जाति द्वेष के, :काले बादल विश्‍व क्‍लेश के, :काले बादल उठते पथ पर :नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!  
सुनता आया हूँ, है देखा,
 
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
 :आज दिशा है हैं घोर अँधेरी :नभ में गरज रही रण भेरी, :चमक रही चपला क्षण-क्षण पर :झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर; !
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
 
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
 :काले बादल, काले बादल, :मन भय से हो उठता चंचल! :कौन हृदय में कहता पल पलपलपल:मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!  
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
 
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
:मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
:पर अनीति से प्रीति नहीं है,
:यह मनुजोचित रीति नहीं है,
:जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!
मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है, पर अनीति से प्रीति नहीं है, यह मनुजोचित रीति नहीं है, जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!  :देश जातियों का कब होगा, :नव मानवता में रे एका, :काले बादल में कल की,  ::सोने की रेखा!</poem>
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