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स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br>
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सो गये हैं अब सारे तारे<br>
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चाँद ने भी ली विदाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई.<br>
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मचलते पंछी पंख फैलाते<br>
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ठंडे हवा के झोंके आते<br>
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नयी किरण की नयी परछाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
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कहीं ईश्वर के भजन हैं होते<br>
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लोग इबादत में मगन हैं होते<br>
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खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
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मोहक लगती फैली हरियाली<br>
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होकर चंचल और मतवाली<br>
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कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
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फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ<br>
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खिल उठी हैं नूतन कलियाँ<br>
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फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
'''जीवन परिचय'''
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आनंद गुप्ता<br>
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- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -        <br>      कवि - अहमद फ़राज़  / <br>
 +
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये<br>
 +
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//<br>
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करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला <br>
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यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //<br>
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मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना <br>
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ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //<br>
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अब आये हो तो यहाँ  क्या है देखने के लिये <br>
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ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //<br>
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गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा <br>
 +
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //<br>
 +
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़" <br>
 +
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//<br>
 +
---  ---    प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------<br>
 +
- - -  --  ---    ---    ---        ----        -----    ------  ----      ---
  
"आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद ‘सरस्वती’ को संभाल सकना और उसे दिशा दृष्टि दे सकना मामूली
 
  
नहीं था । एक तरह से उस महान युग की समाप्ति के साथ नये युग का सूत्रपात कर सकना और पिछले
+
कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
  
युग की जिम्मेदारी को संभाल सकना एक महान व्यक्ति ही कर सकता था- और वह व्यक्तित्व बख्शी जी
+
छिप के कारोबार करना चाहता है
का था । "
+
  
'''-कमलेश्वर'''
+
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
  
  
 +
आसमानों के तले रहता है लेकिन
  
ऐसे महान व्यक्तित्व, सरस्वती के कुशल संपादक, साहित्य वाचस्पति और ‘मास्टरजी’ के नाम से सुप्रसिद्ध
+
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
  
डॉ.पदुमलाल पन्नालाल बख्शी  का जन्म 27 मई 1894 को खैरागढ़ में हुआ । पिता खैरागढ के प्रतिष्ठित
 
  
श्री पुन्नालाल बख्शी  । यह 1903 का समय था जब वे घर के साहित्यिक वातावरण से प्रभावित हो कथा-
+
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
  
साहित्य में मायालोक से परिचित हुए चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति उपन्यास के प्रति विशेष आसक्ति के
+
रेत का व्यौपार करना चाहता है
  
कारण स्कूल से भाग खड़े हुए तथा हेड़मास्टर पंडित रविशंकर शुक्ल (म.प्र. के प्रथम मुख्यमंत्री) द्वारा
 
  
जमकर बेतों से पिटे गये । 1911 में जबलपुर से निकलने वाली ‘हितकारिणी’ में बख्शी की प्रथम कहानी
+
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
  
‘तारिणी’ प्रकाशित हो चुकी थी इसके एक साल बाद अर्थात् 1912 में वे मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण हुए
+
जाने क्या तैयार करना चाहता है
  
और आगे की पढ़ाई के लिए बनारस के सेंट्रल कॉलेज में भर्ती हो गये । इसी बीच सन् 1913 में लक्ष्मी
 
  
देवी के साथ उनका विवाह हो गया । 1916 में उन्होंने बी.ए. की उपाधि प्राप्त की । उनका पहला निबंध
+
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
  
‘सोना निकालने वाली चींटियाँ’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ ।  
+
घूम कर इक वार करना चाहता है
  
  
 +
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
  
मास्टर जी राजनांदगाँव के स्टेट हाई स्कूल में सर्वप्रथम 1916 से 1919 तक संस्कृत शिक्षक के
+
सरहदों को पार करना चाहता है ।
  
रूप में सेवा की । दूसरी बार 1929 से 1949 तक खैरागढ़ विक्टोरिया हाई स्कूल में अंगरेज़ी शिक्षक के रूप
 
  
में नियुक्त रहे । कुछ समय तक उन्होंने कांकेर में भी शिक्षक के रूप में काम किया । सन् 1920 में
 
  
सरस्वती के सहायक संपादक के रूप में नियुक्त किये गये और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती
+
  प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
  
के प्रधान संपादक बनाये गये जहाँ वे अपने स्वेच्छा से त्यागपत्र देने (1925) तक उस पद पर बने रहे ।
+
--------- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
 +
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम।
 +
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
  
1927 में पुनः उन्हें सरस्वती के प्रधान संपादक के रूप में ससम्मान बुलाया गया । दो साल के बाद उनका
 
  
साधुमन वहाँ नहीं रम सका, उन्होंने इस्तीफा दे दिया । कारण था - संपादकीय जीवन के कटुतापूर्ण तीव्र
+
कविता का शीर्षक
 +
'''फुर्सत नहीं है'''
  
कटाक्षों से क्षुब्ध हो उठना ।
+
कवि '''पवन चन्दन'''
 +
प्रेषक अविनाश वाचस्पति
  
 +
हम बीमार थे
 +
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
 +
को तैयार थे
 +
रोज़ अस्पताल आते
 +
हमें जीवित पा
 +
निराश लौटे जाते
  
 +
एक दिन हमने
 +
खुद ही विचारा
 +
और अपने चौथे
 +
नेत्र से निहारा
 +
देखा
 +
चित्रगुप्त का लेखा
  
पुनः अपने ग्राम-घर में रमते हुए आपने 1929 से 34 तक अनेक महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों यथा-  
+
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
 +
शायद
 +
यमराज लेट हो गया है
 +
या फिर
 +
उसकी नज़र फिसल गई
 +
और हमारी मौत
 +
की तारीख निकल गई
 +
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
 +
रो रहे हैं
 +
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
  
 +
किसी ने कहा
 +
यमराज का भैंसा
 +
बीमार हो गया होगा
 +
या यम
 +
ट्रेन में सवार हो गया होगा
 +
और ट्रेन हो गई होगी लेट
 +
आप करते रहिए
 +
अपने मरने का वेट
 +
हो सकता है
 +
एसीपी में खड़ी हो
 +
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
 +
और मौत बोनस पा गई हो
 +
आपसे पहले
 +
औरों की आ गई हो
  
 +
जब कोई
 +
रास्ता नहीं दिखा
 +
तो हमने
 +
यम के पीए को लिखा
 +
सब यार-दोस्त
 +
हमें कंधा देने को रुके हैं
 +
कुछ तो हमारे मरने की
 +
छुट्टी भी कर चुके हैं
 +
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
 +
सारे
 +
इस बात से डरे हैं
 +
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
 +
हम नहीं मरे
 +
तो क्या खुद मरेंगे
 +
वरना बॉस को
 +
क्या कहेंगे
  
पंचपात्र, विश्वसाहित्य, प्रदीप की रचना की और वे प्रकाशित हुईं । मास्टर जी की उल्लेखनीय सेवा को
+
इतना लिखने पर भा
 +
कोई जवाब नहीं आया
 +
तो हमने फ़ोन घुमाया
 +
जब मिला फ़ोन
 +
तो यम बोला. . .कौन?
 +
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
 +
मौत की
 +
लाइन में खड़े हैं
 +
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
 +
हमें जीवन से
 +
छुटकारा दिला
  
देखते हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1949 में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया
+
क्या हमारी मौत
 +
लाइन में नहीं है
 +
या यमदूतों की कमी है
  
। इसके ठीक एक साल बाद वे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति निर्वाचित हुए । 1951 में  
+
नहीं
 +
कमी तो नहीं है
 +
जितने भरती किए
 +
सब भारत की तक़दीर में हैं
 +
कुछ असम में हैं
 +
तो कुछ कश्मीर में हैं
  
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में जबलपुर में मास्टर जी का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया ।
+
जान लेना तो ईज़ी है
 +
पर क्या करूँ
 +
हरेक बिज़ी है
  
मास्टर जी ने 1952 से 1956 तक महाकौशल के रविवासरीय अंक का संपादन कार्य भी किया तथा 1955
+
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
 +
अभी तो हमें भी
 +
मरने की फ़ुरसत नहीं है
  
से 1956 तक खैरागढ में रहकर ही सरस्वती का संपादन कार्य किया । तीसरी बार आप 20 अगस्त 1959
+
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
 +
मेरी भी
 +
मौत की तारीख
 +
निकल चुकी है
 +
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
  
में दिग्विजय कॉलेज राजनांदगाँव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवन पर्यन्त वहीं शिक्षकीय कार्य करते रहे
+
...
 +
कविता का शीर्षक
 +
'''मज़ा'''
  
। इसी मध्य अर्थात् 1949 से 1957 के दरमियान ही मास्टरजी की महत्वपूर्ण संग्रह- कुछ, और कुछ,
+
कवि  '''अविनाश वाचस्पति'''
  
यात्री, हिंदी कथा साहित्य, हिंदी साहित्य विमर्श, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिए, कथानक आदि प्रकाशित हो चुके
+
आज क्या हो रहा है
 +
और क्या होने वाला है?
  
थे । 1969 में सागर विश्वविद्यालय से द्वारिका प्रसाद मिश्र (मुख्यमंत्री) द्वारा डी-लिट् की उपाधि से विभूषित
+
इसे देखकर
 +
जान-समझकर
 +
परेशान हैं कुछ
 +
और
 +
खुश होने वाले भी अनेक।
  
किया गया । इसके बाद उनका लगातार हर स्तर पर अनेक संगठनों द्वारा सम्मान होता रहा, उन्हें
+
मज़े उन्हीं के हैं
 +
जिन पर इन चीज़ों का
 +
असर नहीं पड़ता।
  
उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा जिसमें म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन, मध्यप्रदेश शासन, आदि
+
वे जानते हैं
 +
जो होना है
 +
वो तो होना ही है
 +
और हो भी रहा है
 +
तो फिर
 +
बेवजह बेकार की
 +
माथा-पच्ची करने से
 +
क्या लाभ?
  
प्रमुख हैं । 1968 का वर्ष उनके लिए अत्य़न्त महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी बीच उनकी प्रमुख और प्रसिद्ध
 
  
निबंध संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें हम- मेरी अपनी कथा, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, वे दिन, समस्या और
+
संजय सेन सागर
  
समाधान, नवरात्र, जिन्हें नहीं भूलूंगा, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा, अंतिम अध्याय को गिना
+
मां तुम कहां हो
  
सकते हैं । 18 दिसम्बर 1971 के दिन उनका रायपुर के शासकीय डी.के हास्पीटल में उनका निधन हो गया
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है
  
।   
+
वो तेरा सीने से लगाना,
  
  
  
'''कविताएँ'''
 
  
 +
आंचल में सुलाना याद आता है।
  
'''मातृ मूर्ति'''
+
क्यों तुम मुझसे दूर गई,
  
  
क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
 
  
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।
 
  
 +
किस बात पर तुम रूठी हो,
  
 +
मैं तो झट से हंस देता था।
  
अति उन्नत ललाट पर हमगिरि का है मुकुट विशाल,
 
  
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।
 
  
  
 +
पर तुम तो
  
हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
+
अब तक रूठी हो।
  
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।
 
  
  
  
भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
+
रोता है हर पल दिल मेरा,
  
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.
+
तेरे खो जाने के बाद,
  
  
  
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
 
  
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।
+
गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,
  
 +
तेरे सो जाने के बाद।
  
  
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
 
  
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।
 
  
 +
मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,
  
 +
अब तक दिल में भीनी है।
  
दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
 
  
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।
 
  
  
 +
इस दुनिया में न कुछ अपना,
  
देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
+
सब पत्थर दिल बसते हैं,
  
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।
 
  
  
  
(19 मई 1920 को ‘श्री शारदा’ के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित । यह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है ।)
+
एक तू ही सत्य की मूरत थी,
  
 +
तू भी तो अब खोई है।
  
0000000
 
  
'''एक घनाक्षरी'''
 
  
  
 +
आ जाओ न अब सताओ,
  
सेर भर सोने को हजार मन कण्डे में
+
दिल सहम सा जाता है,
  
खाक कर छोटू वैद्य रस जो बनाते हैं ।
 
  
लाल उसे खाते तो यम को लजाते
 
  
और बूढ़े उसे खाते देव बन जाते हैं ।
 
  
रस है या स्वर्ग का विमान है या पुष्प रथ
+
अंधेरी सी रात में
  
खाने में देर नहीं, स्वर्ग ही सिधाते हैं ।
+
मां तेरा चेहरा नजर आता है।
  
सुलभ हुआ है खैरागढ़ में स्वर्गवास
 
  
और लूट घन छोटू वैद्य सुयश कमाते हैं ।
 
  
  
 +
आ जाओ बस एक बार मां
  
(प्रेमा, अप्रैल 1931 में प्रकाशित)
+
अब ना तुम्हें सताउंगा,
  
  
000000000
 
  
'''दो-चार'''
 
  
 +
चाहे निकले
  
 +
जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।
  
भाव रस अलंकार से हीन, अर्थ-गौरव से शून्य असार ।
 
  
नाम ही है वस जिनमें, पद्य ये हैं ऐसे दो-चार ।
 
  
बिल्व पत्रों का शुष्क समूह, कब किसी से आया है काम,
 
  
उन्हीं से होता जग को तोष तुम्हारा हो यदि उन पर नाम ।
+
आ जाओ ना मां तुम,
  
लिख दिया है बस अपना नाम और क्या है लिखने की बात ?
+
मेरा दम निकल सा जाता है।
  
नाम ही एकमात्र है सत्य और है नाथ ! वही पर्याप्त
 
  
पड़ेगी जब तक जग की दृष्टि, रहेंगे तब तक क्या ये स्पष्ट ?
 
  
किन्तु तुम तो मत जाना भूल, नाम का गौरव हो मत नष्ट ।
 
  
 +
हर लम्हा इसी तरह ,
  
(‘प्रेमा’, दिसम्बर 1930 में प्रकाशित)
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।
  
कविताएं- पदुमलाल पन्नलाल बख्शी
 
  
चयन- जयप्रकाश मानस
+
-------------------.

12:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण


कृपया अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न भी अवश्य पढ़ लें

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*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड़ सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.


आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"

इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//

--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
- - - -- --- --- --- ---- ----- ------ ---- ---


कवि - गुलाम मुर्तुजा राही

छिप के कारोबार करना चाहता है

घर को वो बाज़ार करना चाहता है।


आसमानों के तले रहता है लेकिन

बोझ से इंकार करना चाहता है ।


चाहता है वो कि दरिया सूख जाये

रेत का व्यौपार करना चाहता है ।


खींचता रहा है कागज पर लकीरें

जाने क्या तैयार करना चाहता है ।


पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन

घूम कर इक वार करना चाहता है ।


दूर की कौडी उसे लानी है शायद

सरहदों को पार करना चाहता है ।


 प्रेषक - संजीव द्विवेदी -

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।


कविता का शीर्षक फुर्सत नहीं है

कवि पवन चन्दन प्रेषक अविनाश वाचस्पति

हम बीमार थे यार-दोस्त श्रद्धांजलि को तैयार थे रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते

एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो

जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम बोला. . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है

नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं

जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

... कविता का शीर्षक मज़ा

कवि अविनाश वाचस्पति

आज क्या हो रहा है और क्या होने वाला है?

इसे देखकर जान-समझकर परेशान हैं कुछ और खुश होने वाले भी अनेक।

मज़े उन्हीं के हैं जिन पर इन चीज़ों का असर नहीं पड़ता।

वे जानते हैं जो होना है वो तो होना ही है और हो भी रहा है तो फिर बेवजह बेकार की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ?


संजय सेन सागर

मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,



आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,



किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।



पर तुम तो

अब तक रूठी हो।



रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,



गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।



मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।



इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,



एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।



आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,



अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।



आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,



चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।



आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।



हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।



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