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* <b>कविता के साथ-साथ अपना नाम, कविता का नाम और लेखक का नाम भी अवश्य लिखिये।</b>
 
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+
 
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'''शब्दों की तरफ़ से'''
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+
कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
+
देनिया को देखता हूँ ।
+
 
+
किसी भी शब्द को
+
एक आतशी शीशे की तरह
+
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
+
मुझे उसके पीछे
+
एक अर्थ दिखाई देता
+
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है
+
 
+
ऐसे तमाम अर्थों को जब
+
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
+
कि उनके योग से जो भाषा बने
+
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
+
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-
+
 
+
सरल और स्पष्ट
+
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
+
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
+
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
+
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।
+
 
+
00000000000
+
 
+
'''एक यात्रा के दौरान'''
+
 
+
'''(एक)'''
+
 
+
सफ़र से पहले अकसर
+
रेल-सी लम्बी एक सरसराहट
+
मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।
+
 
+
याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-
+
जैसे जनता और सरकार के बीच,
+
जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,
+
जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,
+
जैसे गति और प्रगति के बीच
+
 
+
घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-
+
 
+
जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,
+
जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,
+
जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,
+
जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।
+
  
याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले
 
बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,
 
गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,
 
आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,
 
याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक
 
बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,
 
सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले....
 
  
'''(दो)'''
+
स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br>
 +
सो गये हैं अब सारे तारे<br>
 +
चाँद ने भी ली विदाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई.<br>
  
सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।
+
मचलते पंछी पंख फैलाते<br>
मुझे एक यात्रा पर जाना है।
+
ठंडे हवा के झोंके आते<br>
मुझे काम पर जाना है।
+
नयी किरण की नयी परछाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
मुझे कहाँ जाना है
+
कहीं ईश्वर के भजन हैं होते<br>
दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?
+
लोग इबादत में मगन हैं होते<br>
मुझ तरह तरह के कामों के पीछे
+
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई<br>
कहाँ कहाँ जाना है ?
+
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
कहाँ नहीं जाना है ?
+
  
'''(तीन)'''
+
मोहक लगती फैली हरियाली<br>
 +
होकर चंचल और मतवाली<br>
 +
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
एक गहरे विवाद में
+
फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ<br>
फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :
+
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ<br>
 +
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी  
+
-------------------------------------
पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए
+
आनंद गुप्ता<br>
ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा
+
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -        <br>      कवि - अहमद फ़राज़  / <br>
मेरा ग़रीब देश भी  
+
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये<br>
कह सके सगर्व कि देखो
+
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//<br>
हम एक साधारण आदमी भी  
+
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला <br>
पहुँचा दिए गए चाँद पर
+
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //<br>
 +
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना <br>
 +
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //<br>
 +
अब आये हो तो यहाँ  क्या है देखने के लिये <br>
 +
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //<br>
 +
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा <br>
 +
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //<br>
 +
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़" <br>
 +
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//<br>
 +
---  ---    प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------<br>
 +
- - -  --  ---    ---    ---        ----        -----    ------  ----      ---
  
पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध
 
आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के
 
हम आदिम आचार्य हैं ।
 
हमारी पवित्र धरती पर
 
आमंत्रित देवताओं के विमान :
 
  
न जाने कितनी बार हमने
+
कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !
+
  
पर आज
+
छिप के कारोबार करना चाहता है
गृहदशा और ग्रहदशा दोनों
+
कुछ ऐसे प्रतिकूल
+
कि सातों दिन दिशाशूल :
+
करते प्रस्थान
+
रख कर हथेली पर जान
+
चलते ज़मीन पर देखते आसमान,
+
काल-तत्व खींचातान : एक आँख
+
हाथ की घड़ी पर
+
दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।
+
न पकड़ से छूटता पुराना सामान,
+
न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।
+
  
'''(चार)'''
+
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
  
घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :
 
वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है
 
चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव
 
  
छूटती ट्रेन पर और दूसरा
+
आसमानों के तले रहता है लेकिन
छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है
+
सरकते साँप-सी एक गति
+
दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,
+
जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर
+
हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :
+
  
वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का
+
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
भागती ट्रेन में दोनो पांव जब
+
एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,
+
जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता
+
दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।
+
भविष्य के प्रति आश्वस्त
+
एक बार फिर जब हम
+
दुश्चिन्तामुक्त समय में - स्थिर चित्त -
+
केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,
+
उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं
+
  
'''(पाँच)'''
 
  
कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र
+
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
हमें कृतज्ञ करता
+
दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,
+
किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी
+
हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,
+
जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी
+
ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,
+
और दूसरों के लिए चिन्ता
+
अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति.....
+
  
'''(छह)'''
+
रेत का व्यौपार करना चाहता है ।
  
कुछ आवाज़ें ।
 
कोई किसी को लेने आया है ।
 
  
कुछ और आवाज़ें ।
+
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
कोई किसी को छोड़ने आया है।
+
किसी का कुछ छूट गया है।
+
छूटते स्टेशन पर  
+
छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।
+
  
अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में
+
जाने क्या तैयार करना चाहता है
+
'''(सात)'''
+
  
क्यों किसी की सन्दूक का कोना
 
अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?
 
क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका
 
गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?
 
कौन हैं वे ?
 
क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना
 
उनसे भरने लगा ?-
 
  
मेरी एक ओर बैठा वह
+
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
विक्षिप्त –सा युवक,
+
मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री, 
+
अपने बच्चेको छाती से चिपकाये
+
दोनों के बीच मैं कौन हूँ --
+
केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?
+
वह स्त्री और वह बच्चा
+
  
क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच
+
घूम कर इक वार करना चाहता है ।
एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?
+
  
क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम
 
अनाश्वस्त करता -
 
और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त
 
जिस हम किसी तरह
 
दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?
 
जो अनायास मिलता और छूट जाता
 
क्यों ऐसा
 
मानो कुछ बनता और टूट जाता ?
 
  
'''(आठ)'''
+
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
  
शायद मैं ऊँघ कर
+
सरहदों को पार करना चाहता है ।
लुढ़क गया था एक स्वप्न में -
+
  
एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर
 
पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय
 
कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच
 
कैसे अट गया एक ही पट पर
 
एक जन्म
 
एक विवरण
 
एक मृत्यु
 
और वह एक उपदेश-से दिखते
 
अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार
 
जिसमे न कहीं किसी तरफ़
 
ले जाते रास्ते
 
न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,
 
केवल एक अदृश्य हाथ
 
अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न
 
कभी कहता संसार......
 
  
अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं
 
और खिलौने की तरह छोटी हो गई,
 
और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी
 
कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले
 
बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले .....
 
उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी
 
अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू
 
रेल की सीटी .....
 
  
'''(नौ)'''
+
  प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
  
शायद उसी वक़्त मैंने
+
--------- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की
+
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम।
और चौंक कर उठ बैठा था ।
+
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
पैताने दो पांव-
+
क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?
+
  
सोच रात है अभी,
 
सुबह उतार लूँगा इन्हें
 
अपने सामान के साथ ।
 
सुबह हुई तो देखा
 
कन्धों पर ढो रहे थे मुझे
 
किसी और के पाँव ।
 
  
हफ़्ते.....महीने....साल....
+
कविता का शीर्षक
 +
'''फुर्सत नहीं है'''
  
बीत गए पल भर में,
+
कवि '''पवन चन्दन'''
“पिता ? तुम ? यहां ?”
+
प्रेषक अविनाश वाचस्पति
  
“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”
+
हम बीमार थे
“नहीं,वे मेरे हैं : मैं
+
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
उन पर आश्रित हूँ।
+
को तैयार थे
और मेरा परिवार :
+
रोज़ अस्पताल आते
मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”
+
हमें जीवित पा
 +
निराश लौटे जाते
  
वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।
+
एक दिन हमने
कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम
+
खुद ही विचारा
जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --
+
और अपने चौथे
एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है
+
नेत्र से निहारा
किसके पाँवों पर ?
+
देखा
+
चित्रगुप्त का लेखा
'''(दस)'''
+
  
नींद खुल गई थी
+
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
शायद किसी बच्चे के रोने से
+
शायद
या किसी माँ के परेशान होने से
+
यमराज लेट हो गया है
या किसी के अपनी जगह से उठने से
+
या फिर
या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से
+
उसकी नज़र फिसल गई
या शायद उस हड़कम्प से जो
+
और हमारी मौत
स्टेशन पास आने पर मचता है.....
+
की तारीख निकल गई
 +
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
 +
रो रहे हैं
 +
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
  
बाहर अँधेरा ।
+
किसी ने कहा
भीतर इतना सब
+
यमराज का भैंसा
एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग
+
बीमार हो गया होगा
जागता और जगाता हुआ ।
+
या यम
एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता
+
ट्रेन में सवार हो गया होगा
सुबह की रोशनी में,
+
और ट्रेन हो गई होगी लेट
डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता
+
आप करते रहिए
 +
अपने मरने का वेट
 +
हो सकता है
 +
एसीपी में खड़ी हो
 +
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
 +
और मौत बोनस पा गई हो
 +
आपसे पहले
 +
औरों की आ गई हो
  
कोई जगह ख़ाली करता
+
जब कोई
कोई जगह बनाता ।
+
रास्ता नहीं दिखा
 +
तो हमने
 +
यम के पीए को लिखा
 +
सब यार-दोस्त
 +
हमें कंधा देने को रुके हैं
 +
कुछ तो हमारे मरने की
 +
छुट्टी भी कर चुके हैं
 +
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
 +
सारे
 +
इस बात से डरे हैं
 +
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
 +
हम नहीं मरे
 +
तो क्या खुद मरेंगे
 +
वरना बॉस को
 +
क्या कहेंगे
  
'''(ग्यारह)'''
+
इतना लिखने पर भा
 +
कोई जवाब नहीं आया
 +
तो हमने फ़ोन घुमाया
 +
जब मिला फ़ोन
 +
तो यम बोला. . .कौन?
 +
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
 +
मौत की
 +
लाइन में खड़े हैं
 +
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
 +
हमें जीवन से
 +
छुटकारा दिला
  
बाहर किसी घसीट लिखावट में  
+
क्या हमारी मौत
लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के
+
लाइन में नहीं है
फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े
+
या यमदूतों की कमी है
पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :
+
विवरण कहीं कहीं रोचक
+
प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !
+
  
भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा
+
नहीं
एक टुकड़ा भारतीय समाज
+
कमी तो नहीं है
मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से
+
जितने भरती किए
लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।
+
सब भारत की तक़दीर में हैं
 +
कुछ असम में हैं
 +
तो कुछ कश्मीर में हैं
  
'''(बारह)'''
+
जान लेना तो ईज़ी है
 +
पर क्या करूँ
 +
हरेक बिज़ी है
  
यहाँ और वहाँ के बीच
+
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
कहीं किसी उजाड़ जगह
+
अभी तो हमें भी
अनिश्चित काल के लिए
+
मरने की फ़ुरसत नहीं है
खड़ी हो गई है ट्रेन ।
+
दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,
+
जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,
+
काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,
+
जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब .....
+
वह सब जो चल रहा था
+
अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है  
+
आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।
+
  
कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था
+
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
जो अकसर होता रहता है जीवन में ।
+
मेरी भी
कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?
+
मौत की तारीख
ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ
+
निकल चुकी है
जैसा होना चाहिए था ?
+
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
सवालों के एक उफान के बाद
+
अलग अलग अनुमानों में निथर कर
+
बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।
+
  
फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से
+
...
घसीटती हुई अपने साथ
+
कविता का शीर्षक
उस शेष को भी जो घटित होगा
+
'''मज़ा'''
कुछ समय बाद
+
कहीं और
+
किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच
+
+
'''(तेरह)'''
+
  
धीमी पड़ती चाल ।
+
कवि  '''अविनाश वाचस्पति'''
अगले ठहराव पर
+
उतर जाना है मुझे ।
+
एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।
+
  
पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।
+
आज क्या हो रहा है
हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं
+
और क्या होने वाला है?
केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,
+
बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का
+
  
घना कोहरा : इतनी रात गये
+
इसे देखकर
एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह
+
जान-समझकर
संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।
+
परेशान हैं कुछ
 +
और
 +
खुश होने वाले भी अनेक।
  
एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास
+
मज़े उन्हीं के हैं
जैसे यह मेरा घर था
+
जिन पर इन चीज़ों का
और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।
+
असर नहीं पड़ता।
  
'''(चौदह)'''
+
वे जानते हैं
 +
जो होना है
 +
वो तो होना ही है
 +
और हो भी रहा है
 +
तो फिर
 +
बेवजह बेकार की
 +
माथा-पच्ची करने से
 +
क्या लाभ?
  
कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।
 
मैं उन्हें नहीं जानता :
 
जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे
 
जिन्हें मैं जानता था ।
 
  
ट्रेन जा चुकी है
+
संजय सेन सागर
एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद
+
प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।
+
+
'''(पन्द्रह)'''
+
  
आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी
+
मां तुम कहां हो
अकेले खड़े हैं उधर ।
+
  
क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है
स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है -
+
“वो आते होंगे, मेरे लिए भी ......”
+
  
कुछ दूर चल कर
+
वो तेरा सीने से लगाना,
ठहर गया हूं –
+
उसके लिए ?
+
या अपने लिए ?
+
देखता हूं उसकी आंखों में 
+
जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी
+
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।
+
  
'''गले तक धरती में'''
 
  
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
सोच रहा हूँ
 
कि बँधे हों हाथ और पाँव
 
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त
 
  
जितना बचा हूँ
 
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
 
कि अगर नाक हूँ
 
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
 
मिट्टी की महक को
 
हलकोर कर बाँधती
 
फूलों की सूक्तियों में
 
और फिर खोल देती
 
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
 
हज़ारों मुक्तियों में
 
  
कि अगर कान हूँ
+
आंचल में सुलाना याद आता है।
तो एक धारावाहिक कथानक की
+
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में  
+
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
+
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
+
चीखें और हाहाकार
+
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
+
अगर ज़बान हूँ
+
तो दे सकता हूँ ज़बान
+
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
+
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
+
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
+
  
अगर ओंठ हूँ
+
क्यों तुम मुझसे दूर गई,
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
+
क्रूरताओं को लज्जित करती
+
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान
+
  
अगर आँखें हूँ
 
तो तिल-भर जगह में
 
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
 
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ....
 
  
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
 
उतने समय को ही अगर
 
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
 
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
 
एक आदमक़द विचार ।
 
  
'''भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में'''
 
  
प्लास्टिक के पेड़
+
किस बात पर तुम रूठी हो,
नाइलॉन के फूल
+
रबर की चिड़ियाँ
+
  
टेप पर भूले बिसरे
+
मैं तो झट से हंस देता था।
लोकगीतों की
+
उदास लड़ियाँ.....
+
  
एक पेड़ जब सूखता
 
सब से पहले सूखते
 
उसके सब से कोमल हिस्से-
 
उसके फूल
 
उसकी पत्तियाँ ।
 
  
एक भाषा जब सूखती
 
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
 
भावों की ताज़गी
 
विचारों की सत्यता –
 
बढ़ने लगते लोगों के बीच
 
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ......
 
  
सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
 
किस तरह कुछ कहा जाय
 
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
 
जिनका ध्यान सब की ओर है –
 
  
कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
+
पर तुम तो  
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
+
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
+
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।
+
  
'''बात सीधी थी पर'''
+
अब तक रूठी हो।
  
बात सीधी थी पर एक बार
 
भाषा के चक्कर में
 
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।
 
  
उसे पाने की कोशिश में
 
भाषा को उलटा पलटा
 
तोड़ा मरोड़ा
 
घुमाया फिराया
 
कि बात या तो बने
 
या फिर भाषा से बाहर आये-
 
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
 
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
 
  
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
 
मैं पेंच को खोलने के बजाय
 
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
 
क्यों कि इस करतब पर मुझे
 
साफ़ सुनायी दे रही थी
 
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
 
  
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
+
रोता है हर पल दिल मेरा,
ज़ोर ज़बरदस्ती से
+
बात की चूड़ी मर गई
+
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
+
  
हार कर मैंने उसे कील की तरह
+
तेरे खो जाने के बाद,
उसी जगह ठोंक दिया ।
+
ऊपर से ठीकठाक
+
पर अन्दर से
+
न तो उसमें कसाव था
+
न ताक़त ।
+
  
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
 
मुझसे खेल रही थी,
 
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
 
“क्या तुमने भाषा को
 
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
 
  
  
'''घबरा कर'''
 
  
वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था
+
गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,
लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।
+
  
ज़्यादातर कुत्ते
+
तेरे सो जाने के बाद।
पागल नहीं होते
+
न ज़्यादातर जानवर
+
हमलावर
+
ज़्यादातर आदमी
+
डाकू नहीं होते
+
न ज़्यादातर जेबों में चाकू
+
  
ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
 
लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।
 
  
मैंने जिसे पागल समझ कर
 
दुतकार दिया था
 
वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था
 
जिसने उसे प्यार दिया था।
 
  
'''आँकड़ों की बीमारी'''
 
  
एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
+
मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,
गिनते गिनते जब संख्या
+
करोड़ों को पार करने लगी
+
मैं बेहोश हो गया
+
  
होश आया तो मैं अस्पताल में था
+
अब तक दिल में भीनी है।
खून चढ़ाया जा रहा था
+
आँक्सीजन दी जा रही थी
+
कि मैं चिल्लाया
+
डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
+
यह हँसानेवाली गैस है शायद
+
प्राण बचानेवाली नहीं
+
तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
+
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
+
पैदाइशी हक़ है वरना
+
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र
+
  
बोलिए नहीं - नर्स ने कहा - बेहद कमज़ोर हैं आप
 
बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप
 
  
डाक्टर ने समझाया - आँकड़ों का वाइरस
 
बुरी तरह फैल रहा आजकल
 
सीधे दिमाग़ पर असर करता
 
भाग्यवान हैं आप कि बच गए
 
कुछ भी हो सकता था आपको –
 
  
सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
 
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
 
आपका बोलना
 
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
 
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
 
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
 
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
 
आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
 
शान्ति से काम लें
 
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे .....
 
  
अचानक मुझे लगा
+
इस दुनिया में न कुछ अपना,
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में  
+
बदल गई थी डाक्टर की सूरत
+
और मैं आँकड़ों का काटा
+
चीख़ता चला जा रहा था
+
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं
+
  
'''किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में'''
+
सब पत्थर दिल बसते हैं,
+
व्यक्ति को
+
विकार की ही तरह पढ़ना
+
जीवन का अशुद्ध पाठ है।
+
  
वह एक नाज़ुक स्पन्द है
 
समाज की नसों में बन्द
 
जिसे हम किसी अच्छे विचार
 
या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
 
पढ़ सकते हैं ।
 
  
समाज के लक्षणों को
 
पहचानने की एक लय
 
व्यक्ति भी है,
 
अवमूल्यित नहीं
 
पूरा तरह सम्मानित
 
उसकी स्वयंता
 
अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
 
ईश्वर तक प्रमाणित हुई !
 
  
  
'''दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति'''
+
एक तू ही सत्य की मूरत थी,
  
 +
तू भी तो अब खोई है।
  
वहाँ वह भी था
 
जैसे किसी सच्चे और सुहृद
 
शब्द की हिम्मतों में बँधी हुई
 
एक ढीक कोशिश.......
 
  
जब भी परिचित संदर्भों से कट कर
 
वह अलग जा पड़ता तब वही नहीं
 
वह सब भी सूना हो जाता
 
जिनमें वह नहीं होता ।
 
  
उसकी अनुपस्थिति से
 
कहीं कोई फ़र्क न पड़ता किसी भी माने में,
 
लेकिन किसी तरफ़ उसकी उपस्थिति मात्र से
 
एक संतुलन बन जाता उधर
 
जिधर पंक्तियाँ होती, चाहे वह नहीं ।
 
  
 +
आ जाओ न अब सताओ,
  
'''उनके पश्चात्'''
+
दिल सहम सा जाता है,
  
कुछ घटता चला जाता है मुझमें
 
उनके न रहने से जो थे मेरे साथ
 
  
मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
 
कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।
 
  
हे दयालु अकस्मात्
 
ये मेरे दिन हैं ?
 
या उनकी रात ?
 
  
मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
+
अंधेरी सी रात में
कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर ?
+
मैं और मेरी दुनिया, जैसे
+
कुछ बचा रह गया हो उनका ही
+
उनके पश्चात्
+
  
ऐसा क्या हो सकता है
+
मां तेरा चेहरा नजर आता है।
उनका कृतित्व-
+
उनका अमरत्व -
+
उनका मनुष्यत्व-
+
ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
+
जो न हो केवल एक देह का अवसान ?
+
  
ऐसा क्या कहा जा सकता है
 
किसी के बारे में
 
जिसमें न हो उसके न-होने की याद ?
 
  
सौ साल बाद
 
परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
 
पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा :
 
  
किसी पुस्तक की पीठ पर
 
एक विवर्ण मुखाकृति
 
विज्ञापित
 
एक अविश्वसनीय मुस्कान !
 
  
 +
आ जाओ बस एक बार मां
  
'''यक़ीनों की जल्दबाज़ी से'''
+
अब ना तुम्हें सताउंगा,
  
एक बार ख़बर उड़ी
 
कि कविता अब कविता नहीं रही
 
और यूँ फैली
 
कि कविता अब नहीं रही !
 
  
यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
 
कि कविता मर गई,
 
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
 
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
 
और इस तरह बच गई कविता की जान
 
  
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
 
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
 
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
 
किसी बेगुनाह को ।
 
  
'''कविता'''
+
चाहे निकले
  
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
+
जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।
कभी हमारे सामने
+
कभी हमसे पहले
+
कभी हमारे बाद
+
  
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
 
भाषा में उसका बयान
 
जिसका पूरा मतलब है सचाई
 
जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान
 
  
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
 
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
 
जुलूसों की तरह निकले
 
नारों की तरह लगे
 
और चुनावों की तरह जीते
 
  
वह आदमी की भाषा में
 
कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस
 
  
'''कविता की ज़रूरत'''
+
आ जाओ ना मां तुम,
  
 +
मेरा दम निकल सा जाता है।
  
बहुत कुछ दे सकती है कविता
 
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
 
ज़िन्दगी में
 
  
अगर हम जगह दें उसे
 
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
 
जैसे तारों को जगह देती है रात
 
  
हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
 
अपने अन्दर कहीं
 
ऐसा एक कोना
 
जहाँ ज़मीन और आसमान
 
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
 
कम से कम हो ।
 
  
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
+
हर लम्हा इसी तरह ,
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
+
कर सकता है
+
कवितारहित प्रेम
+
  
 +
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।
  
कविः कुंवर नारायण की कविताएँ
 
  
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
+
-------------------.

12:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण


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स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.


आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"

इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//

--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
- - - -- --- --- --- ---- ----- ------ ---- ---


कवि - गुलाम मुर्तुजा राही

छिप के कारोबार करना चाहता है

घर को वो बाज़ार करना चाहता है।


आसमानों के तले रहता है लेकिन

बोझ से इंकार करना चाहता है ।


चाहता है वो कि दरिया सूख जाये

रेत का व्यौपार करना चाहता है ।


खींचता रहा है कागज पर लकीरें

जाने क्या तैयार करना चाहता है ।


पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन

घूम कर इक वार करना चाहता है ।


दूर की कौडी उसे लानी है शायद

सरहदों को पार करना चाहता है ।


 प्रेषक - संजीव द्विवेदी -

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।


कविता का शीर्षक फुर्सत नहीं है

कवि पवन चन्दन प्रेषक अविनाश वाचस्पति

हम बीमार थे यार-दोस्त श्रद्धांजलि को तैयार थे रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते

एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो

जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम बोला. . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है

नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं

जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

... कविता का शीर्षक मज़ा

कवि अविनाश वाचस्पति

आज क्या हो रहा है और क्या होने वाला है?

इसे देखकर जान-समझकर परेशान हैं कुछ और खुश होने वाले भी अनेक।

मज़े उन्हीं के हैं जिन पर इन चीज़ों का असर नहीं पड़ता।

वे जानते हैं जो होना है वो तो होना ही है और हो भी रहा है तो फिर बेवजह बेकार की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ?


संजय सेन सागर

मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,



आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,



किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।



पर तुम तो

अब तक रूठी हो।



रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,



गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।



मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।



इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,



एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।



आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,



अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।



आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,



चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।



आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।



हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।



.