भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार }} [[Ca...)
 
छो
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
 
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
  
कोई हसीन नज़ाअरा तो है नज़र के लिए  
+
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए  
  
  
वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
+
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
  
मैं क्बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  
+
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  
  
  

14:41, 9 जून 2010 का अवतरण

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए


यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए


न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए


ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए


तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की

ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए


जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए