भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार }} [[Ca...) |
Thevoyager (चर्चा | योगदान) छो |
||
पंक्ति 23: | पंक्ति 23: | ||
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है | एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है | ||
− | जिसमें तहख़ानों | + | जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं |
14:42, 9 जून 2010 का अवतरण
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते—गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे —क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहले—मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे—नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं