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मानव / सुमित्रानंदन पंत

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=युगांत / सुमित्रानंदन पंत; पल्लविनी / सुमित्रानंदन पंत
}}
{{KKCatKavita}}
::न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
::छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
::पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
::दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
::पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
::कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
::आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
::उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
::विश्वास, असद् सद् का विवेक,
::दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
::मानव का मानव पर प्रत्यय,
::परिचय, मानवता का विकास,
::विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
::सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!
'''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५'''
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