भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़िन्दगी तो रहेगी ही / स‍ंजीव सूरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव सूरी }} {{KKCatKavita}} <poem> ज़िन्दगी तो रहेगी ही कल र…)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:51, 12 जून 2010 के समय का अवतरण




ज़िन्दगी तो रहेगी ही

कल रात
जड़ों ने मिट्टी से बग़ावत कत दी
पत्तों की चर्राहट औत सरसराहट
लुप्त होने लगी
जंगल की गहन वीथिकाओं में
और यह ख़बर दर्ज़ हो गई
पक्षियों की छातियों में
चारों दिशाएँ गूँज उठीं इस ख़बर से
नक्षत्र-मण्डलों से भी उतर आए कुछ
देवदूत
लगा यह ... यह सृष्टि के अंत का सूचक है
साँय साँय करती रात में
समाधि से उठता है पहाड़ भी
चिपक गए दरख़तों की कनपटियों पर
कुछ मृत जुगनू

रोया बहुत उदयाचल, अस्ताचल
और ब्रह्माण्ड को उठाए एटलस
स्याह होने लगा
आकाश का नीलापन
पिघलकर बूँद-बूँद गिरने लगा अनवरत
क्षितिज पर लटका हुआ चाँद
तुषार-मंडित हरीतिमा अएर
कुछ बूँदें हो जाती हैं जज़्ब
काल व्यापी शून्य में
इसी शून्य मे‍ होता है
महानृत्य
अपाहिज इलेक्ट्रानों का
निकलती है झनझनाती आग
और कुछ जाँबाज़ सिरफ़िरे
हाथ बढ़ाकर थाम लेते हैं आसमान
निचोड़ देते हैं इसके अँधेरे को
छिड़क देते है‍ तारों को पृथ्वी पर
तभी आता है एक सफ़ेद कबूतर
पूर्व से उड़ कर और कहता हऐ
तारे हैं,कुछ पेड़ हैं
ज़िन्दगी तो रहेगी ही
इस ख़ूबसूरत पृथ्वी पर.