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"चिराग़ मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर
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20:38, 13 जून 2010 के समय का अवतरण
चिराग़ मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं
अँधेरा कैसे बताएं कि अब तो शब् भी नहीं
जो मेरे शेर में मुझसे ज़यादा बोलता है
मैं उसकी बज़्म में इक हर्फ़ ए ज़ेर ए लब भी नहीं
और अब तो जिंदगी करने के सौ तरीके हैं
हम उसके हिज्र में तन्हा रहे थे जब भी नहीं
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खिलाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं
ये दुःख नहीं कि अंधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं