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"वो रुत भी आई कि मैं फूल की सहेली हुई / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर
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19:57, 14 जून 2010 के समय का अवतरण
वो रुत भी आई कि मैं फूल की सहेली हुई
महक में चम्पाकली रूप में चमेली हुई
मैं सर्द रात की बरखा से क्यूँ न प्यार करूँ
ये रुत तो है मिरे बचपन के साथ खेली हुई
ज़मीन पे पाँव नहीं पड़ रहे तकब्बुर से
निगार ए गम कोई दुल्हन नयी नवेली हुई
वो चाँद बन के मिरे साथ साथ चलता रहा
मैं उसके हिज्र की रातों में कब अकेली हुई
जो हर्फ़ ए सादा की सूरत हमेशा लिक्खी गई
वो लड़की किस तरह तेरे लिए पहेली हुई