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"ढलती नहीं कटती नहीं / विजय वाते" के अवतरणों में अंतर

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सोचता हूँ माँ बेचारी शेर तक कहती नहीं|
 
सोचता हूँ माँ बेचारी शेर तक कहती नहीं|

10:10, 19 जून 2010 के समय का अवतरण

रात ये क्या रात है, ढलती नहीं, कटती नहीं|
साथ अपनी चांदनी भी, रात भर चलती नहीं|

एक छोटा शहज़ादा साथ रहता है मेरे,
एक छोटे शहज़ादे कि कमी मिटती नहीं|

हाथ फैलाकर जो माँगोगे, दुखी हो जाओगे,
मँगाने से जिंदगी क्या, मौत तक मिलाती नहीं|

सुख से मरने के लिए भी चार पैसे चाहिए,
जिंदगी तो खैर पैसो के बिना चलती नहीं|

लोग कहते हैं कि गम को गा-बजाकर कम करो,
सोचता हूँ माँ बेचारी शेर तक कहती नहीं|