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"चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / आगरा आग का घर / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर

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22:17, 28 जून 2010 के समय का अवतरण

जिसके अन्तर में पौरुष की है आग भरी
मैं उसी आग का हूँ, आगरा कहाता हूँ।
सब जुल्म-जोर के जल जाते हैं घास पात,
जब आँख बदल कर मैं अपनी पर आता हूँ।

मेरी सड़कों, गलियों, या कूचे-कूचे में,
भारत का है गौरव-शाली इतिहास छिपा।
मेरी अलसाई आँखों में पतझार छिपा,
मेरी मदमाई आँखों में मधुमास छिपा।

कह रहा कौन, आड़ा-तिरछा मेरा आँगन,
कुछ लाल-धवल उस आँगन में पाषाण भरे।
सच बात अगर सुनना चाहें, मुझसे सुनिए,
मेरे पत्थर-पत्थर में जीवित प्राण भरे।

भारत की संस्कृति का जय-घोष कर रही जो,
वह यमुना भी मेरे घर होकर बहती है।
मेरे वैभव के जो दिन उसने देखे हैं,
वह उसकी गाथा हर दर्शक से कहती है।

क्या ताजमहल का भी लेखा देना होगा?
आश्चर्य विश्व का, किन्तु गर्व वह अपनों का।
लगता है, जैसे कला देह धर आई है,
या फूल खिला बैठा है सुन्दर सपनों का।

या याद किसी की बर्फ बन गई है जम कर,
या कीर्ति किसी की गई दूध से है धोई।
या श्रम की साँसों की पावनता उग आई,
या गढ़ कर ही रह गई दृष्टि उजली काई।

कोई कुछ भी कहना चाहे कह सकता है,
पर एक बात है, ताज ताज है भारत का।
वह व्यक्ति-स्नेह की यादगार तो है ही, पर
यह भी सच है वह मान आज है भारत का।

यह नहीं कि स्वर की जमीं-लहरियाँ ही केवल,
यह नहीं कि मेरे फूल-फूल ही महके हैं।
लपटों ने भी गौरव की रखवाली की है,
जब कभी आँच आई, अंगारे दहके हैं।

आजादी के संघर्ष-काल के वे दिन, जब,
उठ खड़े हो गए जगह-जगह कुछ दीवाने।
उस महफिले की थी एक शमा भी जली यहाँ,
आए थे जाने कहाँ-कहाँ से परवाने।

सरकार फिरंगी उन्हें क्रांतिकारी कहती,
वह चून बाँध कर उनके पीछे पड़ी हुई।
वे भी तो उसके पीछे पड़े भूत जैसे,
आजादी पर दोनों की गाड़ी अड़ी हुई।

वे कहते, आजादी अधिकार हमारा है,
अधिकार माँग कर नहीं, इसे लड़कर लेंगे।
सरकार खुशी से नहीं दे रही, तो अब हम,
आजादी इसकी छाती पर चढ़ कर लेंगे।

हम नहीं याचनाएँ करने के विश्वासी,
हम मार-मार कर इनके भूत भगाएँगे।
हम गोली का, बमगोलों से उत्तर देंगे,
आहुतियों से लपटों की भूख जगाएँगें।