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"चौपाल" के अवतरणों में अंतर

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वेणु गोपाल की दो कविताओं खतरे व और सुबह है,में कविताओं के शीर्षक गलत पड गए थे उन्‍हें सुधारने में सुबह है कविता पता नहीं कहंा चली गयीजरा देख लेंगे, हवाएं चुप नही रहतीं में भी और सुबह है कविता शीर्षक के साथ खतरे कविता है इन्‍हें देख लेंगे-कुमार मुकुल
 
वेणु गोपाल की दो कविताओं खतरे व और सुबह है,में कविताओं के शीर्षक गलत पड गए थे उन्‍हें सुधारने में सुबह है कविता पता नहीं कहंा चली गयीजरा देख लेंगे, हवाएं चुप नही रहतीं में भी और सुबह है कविता शीर्षक के साथ खतरे कविता है इन्‍हें देख लेंगे-कुमार मुकुल
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तुम हमारी चोटीओं  की बर्फ को  यूँ ना कुरेदो
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main yeh kavitaa doodhne ka prayatan kar rahi hoon
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kya aap mujhe yah kavitaa thisisblairwitch@gmail.com par mail kar sakte hain
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main aapki shukragujaar rahoongi

13:45, 22 सितम्बर 2008 का अवतरण

इस पन्ने के माध्यम से आप कविता कोश से संबंधित किसी भी बात पर सभी के साथ वार्ता कर सकते हैं। कृपया इस पन्ने पर से कुछ भी मिटायें नहीं। आप जो भी बात जोड़ना चाहते हैं उसे नीचे दिये गये उचित विषय के सैक्शन में जोड़ दें या नया सैक्शन बना लें। अपनी बात यहाँ जोडने के लिये इस पन्ने के ऊपर दिये गये "Edit this page" लिंक पर क्लिक करें

चौपाल की पुरानी बातें

वर्तमान    001    002    003    004    005    006    007    008   



और मानक

दो चीज़ों पर मानक बनाने की और ज़रूरत है--

मैं कई जगह देखता हूँ कि विराम चिह्न एक स्पेस देकर लिखे हुए मिलते हैं, ये ग़लत तरीक़ा है।

और दूसरे ये कि, विकी पर एक नाम के दो पन्ने नहीं बन सकते है। ऐसी सूरत कोश पर तब आती है जब कविता संग्रह उसकी किसी कविता के नाम पर होता है। ऐसे में हम कुछ छोटा-सा फ़र्क़ कर देते हैं, जैसे तुम्हे सौंपता हूँ / त्रिलोचन संग्रह का और तुम्हे सौंपता हूँ. / त्रिलोचन कविता का। एक ये भी है: काल तुझ से होड़ है मेरी / शमशेर बहादुर सिंह और काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता) / शमशेर बहादुर सिंह। इस वास्ते भी एक ही तरीक़ा तय कर दिया जाए। मेरी राय है कि हम दो पन्ने बनाएँ:

  1. काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता संग्रह) / शमशेर बहादुर सिंह
  2. काल तुझ से होड़ है मेरी / शमशेर बहादुर सिंह


और शमशेर बहादुर सिंह के पन्ने पर कविता संग्रह का लिंक यूँ दिया जाए:

[[काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता संग्रह) / शमशेर बहादुर सिंह|काल तुझ से होड़ है मेरी / शमशेर बहादुर सिंह]]

इससे दोनों जगह एक ही नाम दिखाई देगा। कोई अलग तरीक़ा भी करें तो सही होगा, बशर्ते एकरूपता हो।

कविता के शीर्षक का प्रारूप भी सर्च से कविता पर जाने के लिए ज़रूरी है।

इसे लिखते वक़्त मुझे प्रतिष्ठा जी का संदेश मिला; कवि के नाम को भी वर्तनी मानक के मुआफ़िक करना मुझे भी अटपटा लग रहा था। खै़र, ये भी ध्यान रखूँगा। पर मैंने एकसाथ तीन पन्ने से ज़्यादा मूव करने पर चौथे पन्ने पर करने लगा तो एक संदेश आया, ज़रा देखिए:


स्पैम की रोकथाम के लिये, यह क्रिया इतने कम समय में एकसे ज्यादा बार करनेसे मनाई है, और आप इस मर्यादाको पार कर चुके हैं । कृपया कुछ समय बाद पुन: यत्न किजीयें ।


हिंदी इंटरफ़ेस बनाने में लापरवाही की गई है। ललित जी से और महनत करने की गुज़ारिश करता हूँ।

सुमितकुमार कटारिया(वार्ता) १५:१९, ३० जून २००८ (UTC)

Priya Sumit,




1) Viram chinh me aapka tareeka sahee hai. Ise kosh ke manako wale panne par jod diya jayega.

2) kavita aur kavita sangrah ka naam ek hone par ham jaldi hi manak bana lenge. काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता संग्रह) ka tareeka mujhe achhchha laga. Kintu is vishay pe KK team baat karake hi nirnay legi.

3) Kavi ka naam nahee badalane ka manak bhee manako wale panne par jod diya jayega.

4) hindi interface me kya parivartan chahiye mai samjah nahee pai!!! Kya aap spem wali error ke bare me baat kar rahe hai?


Saadar,

प्रतिष्ठा १६:४७, ३० जून २००८ (UTC)pratishtha

मैं सुमित जी की बातों से सहमत हूँ। कविता और कविता-संग्रह का जो मानक सुमित जी ने सोचा है, वह तरीका मुझे पसन्द आया। हिन्दी इन्टरफ़ेस के बारे में सुमित जी से यह कहना है कि वर्तनी और भाषा की ये ग़लतियाँ हमारी नहीं बल्कि विकि की हैं। ये संदेश विकि से आते हैं और जिसने भी उन्हें वहाँ लिखा है, उसने भाषा, अनुवाद और वर्तनी की ग़लतियाँ की हैं। हमने उन्हें सुझाव दिया था कि हम इन्हें ठीक कर देते हैं, लेकिन उन्होंने हमारी बात का कोई उत्तर नहीं दिया।

सदस्य:अनिल जनविजय २०:२०, ३० जून २००८ (UTC)

माफ़ी चाहूँगा, मुझे लगा ये अनुवाद ललित जी ने किया है। पर ऐसे में, अगर हम कर सकते हैं तो, पुराने इंटरफ़ेस पर लौट जाना चाहिए। हिंदी वाला इंटरफ़ेस घटिया है, और लोगों को यही लगेगा कि हमारी हिंदी कितनी कमज़ोर है। इसमें तो बच्चों की तरह छोटी इ बड़ी ई की ग़लतियाँ दिखाई देती हैं। सुमितकुमार कटारिया(वार्ता) १२:१९, १ जुलाई २००८ (UTC)

वर्तनी-सुधार

आदरणीय अनिल जी और सुमित जी,

१) सुपर स्क्रिप्ट के लिये मैनें Edit pages की टूलबार में एक बटन बना दिया है। इससे सुपर स्क्रिप्ट जोड़ना थोड़ा आसान हो जाएगा। शब्दार्थ जोड़ने को भी आसान बनाने के लिये एक उपाय सोच रहा हूँ।

२) वर्तनी सुधार एक बहुत बड़ा काम है। कविता कोश के ८००० से अधिक पन्नों को जाँचना आसान नहीं है। इसके लिये काफ़ी लोग चाहिये... पर अभी के लिये मैं इस काम को वर्णमाला के अक्षरों के मुताबिक बाँटना चाहूंगा। जैसे की अ और आ से जिन रचनाकारों के नाम शुरु होते हों -उनके सारे पन्नों को कोई एक व्यक्ति जांचेगा। ये ज़िम्मेदारी बाँटने से पहले, हम एक बार तय कर लें की किन वर्तनी-त्रुटियों के होने की अधिक संभावना है और उन्हें कैसे ठीक किया जाएगा। मैं और प्रतिष्ठा आपके जैसा अच्छा भाषा ज्ञान नहीं रखते -सो बेहतर ये होगा कि आप दोनों कविता कोश में वर्तनी के मानक पन्ने पर इस बारे में लिखें कि सही क्या है और ग़लत क्या है। काम शुरु करने से पहले प्रतिष्ठा और मैं इस पन्ने का ठीक से अध्ययन कर लेंगे और उसी के मुताबिक त्रुटियों को खोजेंगे और ठीक करेंगे। जब तक आप लोग वर्तनी के मानकों के इस पन्ने को विकसित नहीं कर लेते -तब तक वर्तनी सुधार का काम बंद रहेगा (प्रतिष्ठा, मैं या आप दोनों फ़िलहाल ये काम न करें और मानकों का पन्ना विकसित करने की ओर ध्यान दें -क्योंकि वही हमारे काम का आधार बनेगा).

३) यदि कोई रचनाकार अपने उपनाम से ही जाना जाने लगा हो तो "नाम" कॉलम में उपनाम ही आना चाहिये। यदि रचनाकार का मूलनाम ज्ञात है -तो उसे "विविध" कॉलम में लिख सकते हैं।

४) अनिल जी, ये जनरल और सिपाही वाली बात आपने खूब कही। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है -मैं भी एक सिपाही हूँ बल्कि एक छोटा सिपाही हूँ। आशा है कि बाकी योगदानकर्ताओं को आपके इस संदेश से कोई ग़लतफ़हमी नहीं होगी।

सादर, --Lalit Kumar १०:४६, १९ अप्रैल २००८ (UTC)

सुपरस्क्रिप्ट का बटन डाल कर अच्छा किया, लाइन ब्रेक का भी डाल दीजिए, पर पता नहीं सुपरस्क्रिप्ट डालने से बाक़ी लाइन में क्यों गड़बड़ हो जाती है।
आप शब्दार्थों के बारे में सोच रहे हैं, मेरे दिमाग़ में भी इसके बारे में कुछ है। DLI पर उर्दू-हिंदी देवनागरी कोशहै। उसके कैच-वर्डों की सारणी मैं महीनों से पूरी करने की सोच रहा हूँ। कुछ इस मारे कि उर्दू के लिए ललक चुक गई, और कुछ इस वजह से कि उर्दू का बहुत ही बढ़िया कोश यहाँ पर मिल गया—اردو لغت‎, मैंने अभी तक उसे पूरा नहीं किया है‎। आधी फ़ेहरिस्त ये लीजिए—उर्दू कोश, इससे आप शब्द खोज सकते हैं। आज इसकी प्रस्तवना पढ़ी, उसमें भी मुझे चंद्रबिंदु वाली ग़लती दिखी है, ये भी सिर्फ़ छपाई की ग़लती है। निरा उर्दू वाला कोश जो है, उसमें अगर आपको उर्दू यूनिकोड की टाइपिंग नहीं आती तो उर्दू तख़्ती का इस्तेमाल कर सकते हैं। शिकागो युनिवर्सिटी की साइट:Digital Dictionaries of South Asiaपर मई में हिंदी शब्दसागर आने वाली थी, अब ये जुलाई तक टल गया है। जब ये आ जाए, तब कोई ऐसा इंतज़ाम चाहिए होगा जैसे कि हर कोश के हर पन्ने पर वहाँ का सर्च-बॉक्स हो।
पर ये सब बात की बातें हैं, आज दूसरी दफा जब बैठूँगा, तब वर्तनी मानक पर काम पूरा कर दूँगा।

--सुमितकुमार कटारिया(वार्ता) ०५:०३, २० अप्रैल २००८ (UTC)


देर करने के लिए माफी। जितना मुझे आता था, वर्तनी मानक वाले पन्ने का काम कर दिया, बाक़ी अनिल जी चाहें तो और भी कोई सुधार कर सकते हैं। पर अब हमें वर्तनी सुधारने का काम शुरु कर देना चाहिए, जो ग़लतियाँ ज़्यादा पाई जाती हैं, उनके बारे में लिख दिया है।

लाइन ब्रेक का बटन सही से नहीं आया।
<br />
ऐसा दिखाई पड़ रहा है।

--सुमितकुमार कटारिया(वार्ता) ०४:११, २१ अप्रैल २००८ (UTC)


स्किन

मैं कविता कोश विकि की स्किन बदलने पर विचार कर रहा हूँ। Quartz स्किन का प्रयोग करने से बायें ओर के बक्सों द्वारा रचनाओं को ढकने की समस्या दूर हो सकती है। लेकिन मैं Quartz स्किन को ज्यों का त्यों प्रयोग नहीं करना चाहता। दर-असल जो स्किन अभी है -मैं फ़िलहाल वही रखना चाहता हूँ -और किसी तरह से बक्सों द्वारा ढकाव की समस्या का इसी स्किन में समाधान सोच रहा हूँ (हालांकि यह काम विकि के प्रोगरामर्स ही कर पाएँगे)। समस्या और उसका सुझाया गया समाधान दोनों ही मेरे ध्यान में हैं। आशा है जल्द ही कोई समाधान तय कर उसे लागू कर पाऊंगा।

लाइन ब्रेक के लिये <br /> ठीक है। यह XHTML आधारित टैग है।

--Lalit Kumar ११:३३, २६ अप्रैल २००८ (UTC)

आप कह रहे हैं कि क्वार्ट्ज़ का ज्यों का त्यों इस्तेमाल नहीं करना चाहते। मेरे खय़ाल से आपने इस पन्ने को नहीं पढ़ा है। और आप मौजूदा स्किन को ही सुधारना चाहते हैं। तो मेरी राय है कि जब तक आप इसकी कोई तिकड़म नहीं निकाल लेते, तब तक तो क्वार्ट्ज़ को लगा दीजिए, या कहीं पर लिख दीजिए कि-- हम सुधार कर रहे हैं, तब तक आप चाहे तो अकाउंट बना के स्किन चुन लीजिए, या फिर अकाउंट नहीं बनाना है तो प्रिंटेबल वर्ज़न का लिंक दिखाई देता है, उससे पढ़ लीजिए। मुझे ये बात पहले ही उठानी चाहिए थी। डिब्बों की वजह से कितने सारे लोग कोश से दूर भाग जाते हैं। अकाउंट वाले तो ५०-६० लोग ही हैं। ये ज़रूरी मसला है। सुमितकुमार कटारिया(वार्ता) १६:२९, २६ अप्रैल २००८ (UTC)


ठीक है, मैं आपकी बात से सहमत हूँ। बक्सों की समस्या के कारण कोश से लोगो का दूर जाना उचित नहीं। मैं Quartz स्किन को एक्टिवेट कर रहा हूँ। फ़िलहाल यह बदलाव अस्थायी है। आगे देखते हैं क्या होता है। --Lalit Kumar १७:१७, २६ अप्रैल २००८ (UTC)



निशा निमंत्रण से जुड़ी समस्‍या।

ललित जी,

मैंने बच्‍चन की 'मेरी श्रेष्‍ठ कविताएँ' नामक पुस्‍तक से निशा निमंत्रण की कविताओं को कविता कोश में जोड़ा।

उसमें निशा निमंत्रण की कविताएँ एक, दो, तीन, ....., बीस तक कविताएँ कम्रानुसार बीना किसी शीर्षक के दी

गई हैं। मैंने उसी तरह कविता कोश में लिख दिया। लेकिन, मुझे लग रहा है कि इन कविताओं के शीर्षक होने

चाहिए थे। सम्‍यक जी ने भी मुझसे इस बात का उल्‍लेख किया। आप चाहे तो इन्‍हें बदल सकते हैं।

और एक बात। निशा निमंत्रण पन्‍नें में पहले से मैजूद दो कविताएँ मुझे इस पुस्‍तक में नहीं मिली। शायद इन्‍हें कही

और रहनी चाहिए या इस पुस्‍तक में ही यह कविताएँ नहीं छापी गई हैं। इनके लिए भी आप कुछ किजिए।

तुषार।


कविता कोश के दूसरे सदस्‍यों से भी मैं इस बात पर ध्‍यान देने के लिए अनुरोध कर रहा हूँ। हिन्‍दी भाषा और

साहित्‍य के बारे में मेरी जानकारी बहुत कम है। आप सभी की मार्गदर्शन की आवश्‍यकता है।

तुषार मुखर्जी।

ढालीगाँव, असम।

भारत।

प्रिय भाई तुषार जी मेरे पास केवल 'निशा निमंत्रण' ही नहीं, बच्चन जी का लिखा सारा काव्य है। लेकिन मैं एक-दो दिन व्यस्त रहूंगा। उसके बाद उनकी इस पूरी पुस्तक की सभी कविताओं के शीर्षक क्रम से कविता कोश पर लिख दूंगा ताकि आपको आसानी हो जाए। जहाँ कवि ने कविताओं के शीर्षक नहीं दिए होते वहाँ हम आम तौर पर कविता की पहली पंक्ति शीर्षक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। प्राय: ग़ज़लों में आपने ऎसा देखा होगा। वही तरीका हिन्दी कविता में भी अपनाया जाता है। ठाकुर प्रसाद सिंह की पुस्तक को कविता कोश पर दॆखकर आप यह बात सहजता से समझ सकते हैं। उसमें भी सभी गीतों की संख्या दी गई थी, शीर्षक नहीं थे। सादर अनिल जनविजय

इस तकलीफ में कोई बोलता क्यों नहीं!

कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है कि जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ? अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० प्रतिशत भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके !

दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है ! हमें असद जैदी और इमरान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !

कवि और लेखक स्वाभाविक तौर पर भावुक और ईमानदार होते हैं , विस्तृत ह्रदय लेकर ये लोग समाज में जब अपनी बात कहने जाते हैं तो वातावरण छंदमय हो उठता है , कबीर की बिरादरी के लोग हैं हमलोग, न किसी से मांगते हैं न अपनी बात मनवाने पर ही जोर देते हैं, नफरत और संकीर्ण विचार धारा से इनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नही हो सकता ! ऐसे लोगों पर जब प्रहार होता है तो कोई बचाने न आए यह बड़ी दर्दनाक स्थिति है ! न यह हिंदू हैं न मुसलमान , इन्हे सिर्फ़ कवि मानिये और इनके प्रति ग़लत शब्द वापस लें तो समाज उनका आभारी होगा ! एक कविता पर गौर करिए ....


बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़

हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता

वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में

वे बुद्धि के ढेर

इन्द्रियां झकाझक उनकीं

सर्दी-खांसी से परे

ट्रेन से कटकर नहीं मरते......


उपरोक्त कविता लिखी है अशोक पांडे जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार ने और इसे प्रकाशित किया है " क्‍या असद ज़ैदी सांप्रदायिक कवि हैं?" नाम के शीर्षक से मोहल्ला में !


ताज्जुब है कि कोई पहाड़ नहीं टूटा , न तूफ़ान आया , कोई प्रतिक्रिया नही हुई , कहीं किसी को यह रचना अपमानित करने लायक नहीं लगी। और लोगों ने, सारी रचनाओं की, चाहे समझ में आईं या नहीं, तारीफ की, कि वाह क्या भाव हैं, और कारण ?


-कि अशोक पाण्डेय तथा चतुर्वेदी हमारे अपने हैं !

-लिखने से क्या होता है, हमारे धर्म में कट्टरता का कोई स्थान नहीं ! अतः कोई आहत नहीं हुआ ! इस कविता से सबको कला नज़र आई !


मजेदार बात यह है कि यह उपरोक्त कविता लोगों की प्रतिक्रिया जानने को ही लिखी गयी थी, कि आख़िर असद जैदी जैसे मशहूर साहित्यकार की लोगों ने यह छीछालेदर करने की कोशिश क्यों की ! और जवाब मिल भी गया !


एक ख़त मिला मुझे गुजरात से रजिया मिर्जा का उसे जस का तस् छाप रहा हूँ , बीच में से सिर्फ़ अपनी तारीफ़ के शब्दों को हटा दिया है ( मेरी तारीफ यहाँ छापना आवश्यक नही है ) जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ...


नमस्ते सतीश जी, आपका पत्र पढा। पढकर हैरान नहीं हूँ क्यों कि मै ऐसे लोगों को साहित्यकार मानती ही नही हूँ जो लोग धर्मो को, ईंसानों को बाँ ते चलें। मै तो ---------------------------------------------------------------------------------------------------आपकी पहचान है। उन लोगों को मैं' साहित्यकार' नहीं परंतु एसे विवेचकों की सूची में रखूंगी जो अपनी दाल-रोटी निकालने के लिये अपने आपको बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बना देते है। मैं अस्पताल में काम करती हूँ । मेरा फ़र्ज़ है कि मै सभी दीन-दुख़ियों का एक समान इलाज़ करूँ, पर यदि मैं अपने कर्तव्य को भूल जाऊँ तो इसमें दोष किसका? शायद मेरे "संस्कार" का ! हाँ, सतीश जी अपने संस्कार भी कुछ मायने रखते है। हमको हमारे माता-पिता, समाज, धर्म, ईमान ने यही संस्कार दिए है कि इन्सान को इंसानों से जोडो, ना कि तोड़ो। सतीश जी आपकी बडी आभारी हूँ जो आपने ऎसा प्रश्न उठाया। मैं एक अपनी कविता उन मेरे भाई-बहनों को समर्पित करती हूँ जो अपने 'साहित्य' का धर्म निभा रहे है। सतीश जी आपसे आग्रह है मेरी इस कविता को अपने कमेन्ट में प्रसारित करें। आभार


दाता तेरे हज़ारों है नाम...

कोई पुकारे तुझे कहेकर रहीम,

और कोई कहे तुझे राम...

दाता..........

क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,

सारे जग पर तेरा पहरा,

तेरा 'राज़'बड़ा ही गहरा,

तेरे इशारे होता सवेरा,

तेरे इशारे होती शाम।...

दाता......

आँधी में तू दीप जलाए,

पत्थर से पानी तू बहाये,

बिन देखे को राह दिख़ाये,

विष को भी अमृत तू बनाये,

तेरी कृपा हो घनश्याम।...

दाता.........

क़ुदरत के हर-सु में बसा तू,

पत्तों में पौन्धों में बसा तू,

नदिया और सागर में बसा तू,

दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तू,

फ़िर क्यों मैं ढूंढूँ चारों धाम।...

दाता..........

ये धरती ये अंबर प्यारे,

चंदा-सूरज और ये तारे,

पतझड़़ हो या चाहे बहारें,

दुनिया के सारे ये नज़ारे,

देखूँ मैं ले के तेरा नाम।...

दाता........


ऐसी कवितायें कबीर दास जी लिखते थे , मैं रजिया जी का हार्दिक शुक्रगुजार हूँ , यह कविता प्यार का एक ऐसा संदेश देती है जो कहीं देखने को नहीं मिलता ! यह गीत गवाह है की कवि की कोई जाति व् सम्प्रदाय नहीं होता

वह तो निश्छलता का एक दरिया है जो जब तक जीवन है शीतलता ही देगा !रजिया मिर्जा की ही कुछ पंक्तियाँ और दे रहा हूँ !


"झे मालोज़र की ज़रुर क्या?

मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !

जो जगह पे मुझ़को सुकूँ मिले,

मुझे वो जहाँ की तलाश है।

जो अमन का हो, जो हो चैन का।

जहॉ राग_द्वेष,द्रुणा न हो।

पैगाम दे हमें प्यार का ।

वही कारवॉ की तलाश है।"


मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस विषय पर बहुत कम लोग बोलने के लिए तैयार है , मैं मुस्लिम भाइयों की मजबूरी समझता हूँ, भुक्त-भोगी होने के कारण उनका न बोलना या कम बोलना जायज है परन्तु, सैकड़ों पढ़े-लिखे उन हिंदू दोस्तों के बारे में आप क्या कहेंगे जो अपने मुस्लिम दोस्तों के घर आते-जाते हैं और कलम हाथ में लेकर अपने को साहित्यकार भी कहते हैं'!

आज ’कबाड़खाना’ पर असद जैदी के बारे में तथाकथित कुछ हिंदू साहित्यकारों की बातें सुनी, शर्मिंदगी होती है ऐसी सोच पर ! मेरी अपील है उन खुले दिल के लोगों से , कि बाहर आयें और इमानदारी से लिखे जिससे कोई हमारे इस ख़ूबसूरत घर में गन्दगी न फ़ेंक सके !

Posted by सतीश सक्सेना satish1954@gmail.com; satish-saxena.blogspot.com


main kavita kosh team ko sujhaav dena chaahunga ki is tarah ke lekh kavita kosh mein shamil naa karein. Jaisa ki kosh ki neetiyon mein likhaa gaya hai kavita kosh kisi bhi rachnakaar kaa moolyankan nahi karta. Asad Zaidi sahab ki kuchh rachnaae haal ke dino mein bahas kaa vishay rahi hain. Lekin kosh ko is baare mein nishpaksh rahanaa chaahiye. Aise vishayo par bahas ke liye jaal par aur bahut se sthaan hain. Kosh ki chaupaal mein rachnaao aur rachnaakaaro par charcha theek hai lekin aise vivaado mein padna shayad kosh ki garima ke anookool shayad na ho.
Yadi sambhav ho to kavita kosh team is sujhaav par vichaar kare. saadar. --सम्यक १४:१९, १६ जुलाई २००८ (UTC)
Meri kavitaon ka jo page abhi dikh raha hai usme tin char kavitaian chutin hain,jo pahle shamil thin,mera nam bhi aadaha dikh raha hai aur use klik karne per ek kavita dikh rahi hai,kripia ise dekh lenge-Aruna Rai

वेणु गोपाल की दो कविताओं खतरे व और सुबह है,में कविताओं के शीर्षक गलत पड गए थे उन्‍हें सुधारने में सुबह है कविता पता नहीं कहंा चली गयीजरा देख लेंगे, हवाएं चुप नही रहतीं में भी और सुबह है कविता शीर्षक के साथ खतरे कविता है इन्‍हें देख लेंगे-कुमार मुकुल


तुम हमारी चोटीओं की बर्फ को यूँ ना कुरेदो main yeh kavitaa doodhne ka prayatan kar rahi hoon kya aap mujhe yah kavitaa thisisblairwitch@gmail.com par mail kar sakte hain main aapki shukragujaar rahoongi