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"नहीं कि मुझ को क़यामत का ऐतिक़ाद नहीं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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नहीं कि मुझको क़यामत का एतिक़ाद नहीं <br>
 
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20:17, 27 जनवरी 2008 का अवतरण

नहीं कि मुझको क़यामत का एतिक़ाद नहीं
शब-ए-फ़िराक़ से रोज़-ए-जज़ा ज़ियाद नहीं

कोई कहे कि शब-ए-मह में क्या बुराई है
बला से आज अगर दिन को अब्र-ओ-बाद नहीं

जो आऊँ सामने उन के तो मरहबा न कहें
जो जाऊँ वाँ से कहीं को, तो ख़ैरबाद नहीं

कभी जो याद भी आता हूँ मैं तो कहते हैं
के आज बज़्म में कुछ फ़ित्ना-ओ-फ़साद नहीं

अलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब
गदा-ए-कूचा-ए-मैख़ाना नामुराद नहीं

जहाँ में हो ग़म-ओ-शादी बहम, हमें क्या काम
दिया है हमको ख़ुदा ने वो दिल के शाद नहीं

तुम उन के वादे ज़िक्र उन से क्यूँ करो "ग़ालिब"
ये क्या के तुम कहो और वो कहें के याद नहीं