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सर गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है <br> | सर गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है <br> |
20:22, 27 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
सर गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
तस्कीं को दे नवेद के मरने की आस है
लेता नहीं मेरे दिल-ए-आवारा की ख़बर
अब तक वो जानता है के मेरे ही पास है
कीजे बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म कहाँ तलक
हर मू मेरे बदन पे ज़बान-ए-सिपास है
है वो ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगाना-ए-वफ़ा
हर-चंद उस के पास दिल-ए-हक़-शनास है
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
इस बलगमी मिज़ाज को गर्मी ही रास है
हर यक मकान को है मकीं से शरफ़ "असद"
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है