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''' वैष्णो बाला '''
 
इसी उत्तल-उत्तुन्ग
गयी थी एक बाला,
जिसके क्रोध ने
बना दिया था देवी उसे कैसे बचाया होगाउसने स्वयं को?हां, बचाया थास्वयं को और इस सुकुमारी वनविहारिणी सुन्दरी को भी--शील-भंग होने से,चढ़ते हुए उन नुकीले शिखरों पर जिन पर पिपीलिकाओं तक के पाँव फिसल जाते हैं,ब्यालों से बचकर छिपते हुए उन गुह्य कंदराओं में जिनमें घुसते हुए केंचुए तक की कमर टूट जाती है आखिरकार, प्रतिशोध ने विवश कर दिया होगा उसेअपूर्व बल अर्जित करने के लिए,तब उसने सम्पूर्ण स्त्री-बल से कलम कर दिया होगा--अहंकार का सिर,निष्ठुर पौरुष के खिलाफ छेड़ा था संग्राम जो उसने,उसकी विजय-परिणति हुई थी यहीं,यहीं उसने कामांधता को रौंद बजाया था विगुलनाद  जब कभी निरीहता असमर्थता की कैद से मुक्त हुई होगी,एक तीर्थ-स्थल बना होगा वहांऔर ताकत की तलाश में निरीहजन आखिरकारपहुंचे होंगे यहीं--मनस्वी निष्ठा से इस बाला को पूजने,आत्मबल अर्जित करने का जिसने जीवंत संदेश पहुंचाया कोने-कोने.  (जम्मू; अनुमानित रचना-काल: जुलाई, १९९८)