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"गरीबदास का शून्य / अशोक चक्रधर" के अवतरणों में अंतर

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नहीं मिट सकती।<br><br>
 
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18:58, 12 मई 2007 का अवतरण

रचनाकार: अशोक चक्रधर

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अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है?
- दिखता है।
धरती दिखती है?
- दिखती है।
ये दोनों जहाँ मिलते हैं
वो लाइन दिखती है?
- दिखती है साब।
- इसे तो बहुत बार देखा है।
बस ग़रीबदास यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएँगे
तू दौड़ता जाएगा,
दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहाँ तक
कभी नहीं पहुँच पाएगा।
और जब, पहुँच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा?
जहाँ हैं, वहीं का वहीं रह जाएगा।

गरीबदास!
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती, हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।