"पतंग पर्व / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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पतंग जूझती हैं | पतंग जूझती हैं | ||
− | हवाई | + | हवाई थपेड़ों से, |
हमारी खुशियों की | हमारी खुशियों की | ||
गठरी लादे हुए | गठरी लादे हुए | ||
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किसी गुप्त भाषा में | किसी गुप्त भाषा में | ||
और हमारी दीवानगी की | और हमारी दीवानगी की | ||
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गुरूर-गुमान से | गुरूर-गुमान से | ||
घुमाती हुई अपना सिर | घुमाती हुई अपना सिर | ||
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लुभाती-ललचाती है, | लुभाती-ललचाती है, | ||
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मचल-मचल, | मचल-मचल, | ||
छपाक-छपाक उछल | छपाक-छपाक उछल | ||
सुदूर नभीय झील में | सुदूर नभीय झील में | ||
कि आओ! | कि आओ! | ||
− | अथक | + | अथक उड़ो |
और छा जाओ, | और छा जाओ, | ||
छू लो हमें स्वच्छन्द | छू लो हमें स्वच्छन्द | ||
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क्षितिजीय सीमाओं से | क्षितिजीय सीमाओं से | ||
− | हम आंखें | + | हम आंखें फोड़ लेते हैं |
उन्हें एकटक | उन्हें एकटक | ||
देखते-देखते | देखते-देखते | ||
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दादुरी झुण्ड, | दादुरी झुण्ड, | ||
जैसे जम्हाती संध्या में | जैसे जम्हाती संध्या में | ||
− | झींगुरों | + | झींगुरों की झन-झन |
− | + | खिलन्दड़ी पतंग | |
नहीं उतरती है खरी | नहीं उतरती है खरी | ||
हमारी डुबडुबाती | हमारी डुबडुबाती | ||
भावनाओं पर, | भावनाओं पर, | ||
− | खूब | + | खूब लड़ती-झगड़ती है |
अपनी दुश्मन पतंगों से, | अपनी दुश्मन पतंगों से, | ||
छल-युद्ध करके | छल-युद्ध करके | ||
− | कभी मैदान | + | कभी मैदान छोड़ |
भागने का बहाना बना करके | भागने का बहाना बना करके | ||
− | फिर, वापस टूट | + | फिर, वापस टूट पड़ती है |
अपने प्रतिद्वन्द्वी पर। | अपने प्रतिद्वन्द्वी पर। | ||
(रचना काल: फ़रवरी, १९९९) | (रचना काल: फ़रवरी, १९९९) |
16:41, 27 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
पतंग पर्व
(विशेषतया, पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में मकर संक्रान्ति अर्थात 'खिचड़ी' के पर्व पर पतंग उड़ाने की परम्परा रही है। कवि के बचपन की कतिपय स्मृतियां इस पर्व के साथ जुड़ी हुई हैं। कवि की बाल्यावस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा जौनपुर में गुजरा है।)
पतंग जूझती हैं
हवाई थपेड़ों से,
हमारी खुशियों की
गठरी लादे हुए
अपनी धागाई पीठ पर
पतंग बतियाती है
पंछियों से,
किसी गुप्त भाषा में
और हमारी दीवानगी की
खूब उड़ाती है खिल्लियां,
गुरूर-गुमान से
घुमाती हुई अपना सिर
इधर से उधर
देखती है
असीम आसमान
बहुत पास से,
बादलों की ओट में
लुकती-छिपती
फीके चांद पर
सिर रख
शेखी बघारती है
गहरी नींद में
सो जाने की
और हमें
अपनी ओझलता से
तरसाने की
लुभाती-ललचाती है,
चिढ़ाती-चिलबिलाती है
मचल-मचल,
छपाक-छपाक उछल
सुदूर नभीय झील में
कि आओ!
अथक उड़ो
और छा जाओ,
छू लो हमें स्वच्छन्द
कलाबाजियां मारते हुए
दिशाहीन दिशाओं में,
छूट जाओ
धराजन्य बन्धनों से
क्षितिजीय सीमाओं से
हम आंखें फोड़ लेते हैं
उन्हें एकटक
देखते-देखते
और तब, वे टरटराती है
जैसे सावनी ताल-तलैयों के
दादुरी झुण्ड,
जैसे जम्हाती संध्या में
झींगुरों की झन-झन
खिलन्दड़ी पतंग
नहीं उतरती है खरी
हमारी डुबडुबाती
भावनाओं पर,
खूब लड़ती-झगड़ती है
अपनी दुश्मन पतंगों से,
छल-युद्ध करके
कभी मैदान छोड़
भागने का बहाना बना करके
फिर, वापस टूट पड़ती है
अपने प्रतिद्वन्द्वी पर।
(रचना काल: फ़रवरी, १९९९)