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+ | मन रोके नहीं रुका | ||
+ | यों तो कई बार पी-पीकर | ||
+ | जी भर गया छका | ||
+ | एक बूँद थी, किंतु, | ||
+ | कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। | ||
+ | कितनी बार तुम्हें देखा | ||
+ | पर आँखें नहीं भरीं। | ||
− | + | शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी | |
− | + | कण-कण में बिखरी | |
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− | + | हाय, गूँथने के ही क्रम में | |
+ | कलिका खिली, झरी | ||
+ | भर-भर हारी, किंतु रह गई | ||
+ | रीती ही गगरी। | ||
+ | कितनी बार तुम्हें देखा | ||
+ | पर आँखें नहीं भरीं। | ||
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00:31, 28 अगस्त 2010 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक : पर आँखें नहीं भरीं रचनाकार: शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ |
कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं। सीमित उर में चिर-असीम सौंदर्य समा न सका बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग मन रोके नहीं रुका यों तो कई बार पी-पीकर जी भर गया छका एक बूँद थी, किंतु, कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं। शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी कण-कण में बिखरी मिलन साँझ की लाज सुनहरी ऊषा बन निखरी, हाय, गूँथने के ही क्रम में कलिका खिली, झरी भर-भर हारी, किंतु रह गई रीती ही गगरी। कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।