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"बिखर चुका है मगर ज़िंदगी की चाह में है / कृष्ण कुमार ‘नाज़’" के अवतरणों में अंतर
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08:56, 10 सितम्बर 2010 का अवतरण
बिखर चुका है मगर ज़िंदगी की चाह में है ये दिल का आइना कब से तेरी पनाह में है
दुआ लबों पे है और दर्दो-ग़म कराह में है ये कौन शख़्स मुहब्बत की बारगाह में है
दरख़्त वो जिसे पतझड़ ने ज़र्द-ज़र्द किया मेरी तरह से वो तन्हाइयों की राह में है
मलाल ये तो मुझे है ही तू मेरा न हुआ ये ग़म अलग है कि कोई तेरी निगाह है
सुगन्ध पाने की ख़्वाहिश में फूल तोड़ लिया यही ललक थी जो शामिल मेरे गुनाह में है
जो बात-बात पे देता रहा फ़रेब सदा क़दम-क़दम मेरा फिर भी उसी की राह में है
हैं दोनों एक ही रस्ते के हम मुसाफ़िर ’नाज़’ ये सोचना है ग़लत कौन किसकी राह में है