"युगावतार गांधी / सोहनलाल द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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मढ़ते जननी का स्वर्णताज! | मढ़ते जननी का स्वर्णताज! | ||
::तुम कालचक्र के रक्त सने | ::तुम कालचक्र के रक्त सने | ||
− | ::दशनों को | + | ::दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़, |
− | ::मानव को दानव के | + | ::मानव को दानव के मुँह से |
::ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़; | ::ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़; | ||
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पिसती कराहती जगती के | पिसती कराहती जगती के | ||
प्राणों में भरते अभय दान, | प्राणों में भरते अभय दान, | ||
अधमरे देखते हैं तुमको, | अधमरे देखते हैं तुमको, | ||
किसने आकर यह किया त्राण? | किसने आकर यह किया त्राण? | ||
− | + | ::दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से | |
− | + | ::तुम कालचक्र की चाल रोक, | |
− | तुम कालचक्र की चाल रोक, | + | ::नित महाकाल की छाती पर |
− | नित महाकाल की छाती पर | + | ::लिखते करुणा के पुण्य श्लोक! |
− | लिखते करुणा के पुण्य श्लोक! | + | कँपता असत्य, कँपती मिथ्या, |
− | + | बर्बरता कँपती है थरथर! | |
− | + | कँपते सिंहासन, राजमुकुट | |
− | बर्बरता | + | कँपते, खिसके आते भू पर, |
− | + | ::हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित, | |
− | + | ::सेनायें करती गृह-प्रयाण! | |
− | + | ::रणभेरी तेरी बजती है, | |
− | + | ::उड़ता है तेरा ध्वज निशान! | |
− | सेनायें करती गृह-प्रयाण! | + | हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा, |
− | रणभेरी तेरी बजती है, | + | पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र? |
− | + | इस राजतंत्र के खँडहर में | |
− | + | उगता अभिनव भारत स्वतंत्र! | |
− | हे युग-दृष्टा, हे युग- | + | |
− | + | ||
− | इस राजतंत्र के | + | |
− | उगता अभिनव भारत | + | |
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19:42, 14 सितम्बर 2010 का अवतरण
चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!
तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
रचते रहते नित नई सृष्टि,
उठती नवजीवन की नींवें
ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि;
धर्माडंबर के खँडहर पर
कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
मानवता का पावन मंदिर
निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!
बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
गढ़ते तुम अपना रामराज,
आत्माहुति के मणिमाणिक से
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
तुम कालचक्र के रक्त सने
दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
मानव को दानव के मुँह से
ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
पिसती कराहती जगती के
प्राणों में भरते अभय दान,
अधमरे देखते हैं तुमको,
किसने आकर यह किया त्राण?
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम कालचक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
कँपता असत्य, कँपती मिथ्या,
बर्बरता कँपती है थरथर!
कँपते सिंहासन, राजमुकुट
कँपते, खिसके आते भू पर,
हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
सेनायें करती गृह-प्रयाण!
रणभेरी तेरी बजती है,
उड़ता है तेरा ध्वज निशान!
हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
इस राजतंत्र के खँडहर में
उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!