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हो कितनी शिद्दते-ए-ग़म वक़्त आख़िर पोंछ देता है,
हमारे दीदा-ए-तर <ref>भीगी हुई आँख</ref> की नमी आहिस्ता आहिस्ता ।
परेशाँ किसलिए होता है ऐ दिल बात रख अपनी
इरादों में बुलंदी हो तो नाकामी का ग़म अच्छा,
कि पड़ जाती है फीकी हर ख़ुशी आहिस्ता आहिस्ता ।
 
छुपाएगी हक़ीक़त को नमूद-ए-जाहिरी<ref>ऊपरी दिखावा, बनावट</ref> कब तक,
उभरती है शफ़क<ref>उषा, लालिमा</ref> से रोशनी आहिस्ता आहिस्ता ।
 
ये दुनिया ढूँढ़ लेती है निगाहें तेज़ हैं इसकी
तू कर पैदा हुनर में आज़री<ref>आजर इंसान का प्रसिद्ध मूर्तिकार था,यानी कला में पराकाष्ठा</ref> आहिस्ता आहिस्ता ।
 
तख़य्युल<ref>कल्पना</ref> में बुलन्दी और ज़बाँ में सादगी 'रहबर'
निखर आई है तेरी शायरी आहिस्ता आहिस्ता ।
 
'''रचनाकाल : 16 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर'''
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