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"अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर

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21:02, 24 सितम्बर 2010 का अवतरण

अजनबी खौफ फिजाओं में बसा हो जैसे, शहर का शहर ही आसेब जादा हो जैसे,

रात के पिछले पहर आती हैं आवाजें सी, दूर सहरा में कोई चीख रहा हो जैसे,

दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऎसी आज हर घर से जनाज़ा सा उठा हो जैसे

मुस्कुराता हूँ पा-ए-खातिर-ए-अहबाब- मगर दुःख तो चहरे की लकीरों पे सजा हो जैसे

अब अगर दूब गया भी तो मारूंगा न 'कमाल' बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे