भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गाँव हो या शहर / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=मार प्यार की थापें / के…) |
छो ("गाँव हो या शहर / केदारनाथ अग्रवाल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:52, 17 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
गाँव हो या शहर
बचा कोई नहीं
दगहिल खराब होने से
तलातली पतन से।
हराम हो गया
सुबह से शाम तक जीना--
रात में सोना।
असम्भव हो गया
सुरक्षा की सड़कों पर
सुरक्षा से चलना।
किसी का चाकू
किसी के पेट में घुसा
और आदमी का चिराग
समय से पहले बुझा।
बढ़ते-बढ़ते
बेहद बढ़ गया गम
अराजकता नहीं हो पा रही कम।
रचनाकाल: २२-०२-१९७८