भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हिया के पीर छलकके गजल में आइल बा / मनोज भावुक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज भावुक }} Category:ग़ज़ल <poem> हिया के पीर छलकके गज…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:07, 28 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
हिया के पीर छलकके गजल में आइल बा
तबे सुनत त नयन लोग के लोराइल बा
कबो-कबो ऊ अकेला में बुदबुदाताटे
बुझात बा कि बेचारा बहुत चुसाइल बा
देखाई आजले हमरा ना ऊ पड़ल कबहूँ
हिया में, साँस में, धड़कन में जे समाइल बा
कहा सकल ना कबो हाल दिल के तहरा से
मगर ई साँच बा, तहरे में दिल हेराइल बा
निकल के आईं कबो ख्वाब से हकीकत में
परान रउरे भरोसा प अब टँगाइल बा
शहर कहीं ना बने गाँव अपनो ए 'भावुक'
अँजोर देख के मड़ई बहुत डेराइल बा