भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फ़क़त शून्य / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: <poem>हम हो तो गए हैं सत्यवादी हरीशचंद्र परंतु सच कभी नहीं बोलते यदि …)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<poem>हम हो तो गए हैं
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
{{KKCatKavita‎}}
 +
<Poem>
 +
हम हो तो गए हैं
 
सत्यवादी हरीशचंद्र  
 
सत्यवादी हरीशचंद्र  
 
परंतु
 
परंतु
पंक्ति 7: पंक्ति 14:
 
तो हम
 
तो हम
 
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं
 
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं
 +
 
आखिर क्यों ?
 
आखिर क्यों ?
मैं बताता हूं
+
मैं बताता हूँ
 +
 
 
हम पूंजी और मानवता की  
 
हम पूंजी और मानवता की  
वर्ण संकर संतानें हैं।
+
वर्ण संकर संतानें हैं ।
 
चेहरे पर से चेहरे
 
चेहरे पर से चेहरे
 
चेहरे पर से चेहरे
 
चेहरे पर से चेहरे
 
चेहरे पर से चेहरे
 
चेहरे पर से चेहरे
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएं
+
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएँ
 
अंतत: वजूद जैसा  
 
अंतत: वजूद जैसा  
 
एक दाना  
 
एक दाना  
पहचान भी रामनाम सत्य है
+
पहचान भी राम नाम सत्य है
 
पीछे फ़क़त शून्य ।
 
पीछे फ़क़त शून्य ।
  
 
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
 
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
 
</poem>
 
</poem>

20:41, 31 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

हम हो तो गए हैं
सत्यवादी हरीशचंद्र
परंतु
सच कभी नहीं बोलते
यदि अचानक कभी सच
आ भी जाता है जुबान पर
तो हम
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं

आखिर क्यों ?
मैं बताता हूँ

हम पूंजी और मानवता की
वर्ण संकर संतानें हैं ।
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएँ
अंतत: वजूद जैसा
एक दाना
पहचान भी राम नाम सत्य है
पीछे फ़क़त शून्य ।

अनुवाद : नीरज दइया