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बकरियाँ / आलोक धन्वा

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|रचनाकार = आलोक धन्वा |संग्रह=दुनिया रोज़ बनती है / आलोक धन्वा
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अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियाँ
 
अनंत में भी हो आतीं
 
भर पेट पत्तियाँ तूंग कर वहाँ से
 
फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में
 
लौट आतीं
 
जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
 
पहाड़ की तीखी चढाई पर भी बकरियों से मुलाक़ात हुई
 
वे काफ़ी नीचे के गाँवों से चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
 
जैसे जैसे हरियाली नीचे से उजड़ती जाती
 
गर्मियों में
 
लेकिन चरवाहे कहीँ नहीं दिखे
 
सो रहे होंगे
 
किसी पीपल की छाया में
 
यह सुख उन्हें ही नसीब है।
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