"माँ / भाग १४ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर
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मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये | मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये | ||
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तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है | तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है | ||
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बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था | बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था | ||
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मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था | मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था | ||
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किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की | किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की | ||
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सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया | सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया | ||
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मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ | मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ | ||
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कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है | कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है | ||
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कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है | कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है | ||
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कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है | कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है | ||
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उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले | उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले | ||
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जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते | जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते | ||
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शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको | शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको | ||
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इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता | इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता | ||
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हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे | हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे | ||
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मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं | मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं | ||
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भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में | भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में | ||
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ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है | ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है | ||
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अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता | अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता | ||
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ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है | ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है | ||
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20:38, 14 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये
तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है
बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था
मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था
किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया
मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ
कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है
कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है
उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते
शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको
इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता
हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे
मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं
भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है
अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है