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"यही सबब है जो हल मसअला नही होता / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी" के अवतरणों में अंतर
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− | यही सबब है जो हल मसअला | + | यही सबब है जो हल मसअला नहीं होता |
− | कि ज़ह्नो-दिल मे कोई मश्विरा | + | कि ज़ह्नो-दिल मे कोई मश्विरा नहीं होता । |
हम आईने के मुकाबिल तो रोज़ होते हैं | हम आईने के मुकाबिल तो रोज़ होते हैं | ||
− | हमारा ख़ुद से मगर सामना | + | हमारा ख़ुद से मगर सामना नहीं होता । |
− | हवा जिधर की चले, | + | हवा जिधर की चले, रुख़ उधर का कर लेना |
− | समन्दरों | + | समन्दरों में कोई रास्ता नहीं होता । |
बयान, पेशी, गवाही तो रोज़ होते है | बयान, पेशी, गवाही तो रोज़ होते है | ||
− | मगर हयात तेरा फ़ैसला | + | मगर हयात तेरा फ़ैसला नहीं होता । |
− | वो जिसमें | + | वो जिसमें शाख़ें निकलती नहीं हैं शाख़ों से |
− | उसी दरख़्त का साया घना | + | उसी दरख़्त का साया घना नहीं होता । |
− | सब अपने-अपने लिए जी रहे | + | सब अपने-अपने लिए जी रहे हैं ए ’बेख़ुद’ |
− | यहाँ तो कोई किसी का सगा | + | यहाँ तो कोई किसी का सगा नहीं होता । |
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07:38, 18 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
यही सबब है जो हल मसअला नहीं होता
कि ज़ह्नो-दिल मे कोई मश्विरा नहीं होता ।
हम आईने के मुकाबिल तो रोज़ होते हैं
हमारा ख़ुद से मगर सामना नहीं होता ।
हवा जिधर की चले, रुख़ उधर का कर लेना
समन्दरों में कोई रास्ता नहीं होता ।
बयान, पेशी, गवाही तो रोज़ होते है
मगर हयात तेरा फ़ैसला नहीं होता ।
वो जिसमें शाख़ें निकलती नहीं हैं शाख़ों से
उसी दरख़्त का साया घना नहीं होता ।
सब अपने-अपने लिए जी रहे हैं ए ’बेख़ुद’
यहाँ तो कोई किसी का सगा नहीं होता ।