भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
− | अजनबी | + | अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे, |
− | शहर का शहर ही | + | शहर का शहर ही आसेबज़ |
+ | दा हो जैसे, | ||
रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी, | रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी, | ||
पंक्ति 13: | पंक्ति 14: | ||
दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी | दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी | ||
− | आज हर घर से जनाज़ा सा उठा हो जैसे | + | आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे |
− | मुस्कुराता हूँ पा-ए- | + | मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ा |
− | दुःख तो | + | तिर-ए-अहबाब- मगर |
+ | दुःख तो चे | ||
+ | हरे की लकीरों पे सजा हो जैसे | ||
− | अब अगर | + | अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल' |
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे | बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे | ||
</poem> | </poem> |
06:39, 19 नवम्बर 2010 का अवतरण
अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे,
शहर का शहर ही आसेबज़
दा हो जैसे,
रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी,
दूर सहरा में कोई चीख़ रहा हो जैसे,
दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी
आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे
मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ा
तिर-ए-अहबाब- मगर
दुःख तो चे
हरे की लकीरों पे सजा हो जैसे
अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे