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"अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर

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आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे
 
आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे
  
मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ा
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मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब- मगर
तिर-ए-अहबाब- मगर
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दुःख तो चेहरे की लकीरों पे सजा हो जैसे
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हरे की लकीरों पे सजा हो जैसे
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अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
 
अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
 
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे  
 
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे  
 
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06:40, 19 नवम्बर 2010 का अवतरण

अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे,
शहर का शहर ही आसेबज़
दा हो जैसे,

रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी,
दूर सहरा में कोई चीख़ रहा हो जैसे,

दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी
आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे

मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब- मगर
दुःख तो चेहरे की लकीरों पे सजा हो जैसे

अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे