"संगठन का अंकुर / श्रीकांत वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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− | तुम मेरे शत्रु हो | + | <poem> |
− | मेरी हर अड़चन की जड़ में तुम ज़िंदा | + | तुम मेरे शत्रु हो |
− | तुम मेरे शत्रु हो | + | मेरी हर अड़चन की जड़ में तुम ज़िंदा हो । |
− | मेरे सपनों की राखड़ में तुम ज़िंदा | + | तुम मेरे शत्रु हो |
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− | मेरे चूल्हे में जो राख का बवंडर है | + | मेरे चूल्हे में जो राख का बवंडर है |
− | उसके आकार में | + | उसके आकार में |
− | तुम्हारा ही मुखड़ा | + | तुम्हारा ही मुखड़ा है । |
− | मेरे मन में जो कौंधा है, जो बिजली है, | + | मेरे मन में जो कौंधा है, जो बिजली है, |
− | उसको तुमने अपने | + | उसको तुमने अपने |
− | तरकश में जकड़ा | + | तरकश में जकड़ा है । |
− | सहज कल्पनाएँ | + | सहज कल्पनाएँ |
− | मीनारों सी टूट गईं, | + | मीनारों सी टूट गईं, |
− | इधर उधर फिरती | + | इधर उधर फिरती |
− | आकांक्षा की कूबड़ | + | आकांक्षा की कूबड़ है । |
− | असफलता का थप्पड़ है, | + | असफलता का थप्पड़ है, |
− | अपनी ही प्रतिध्वनि | + | अपनी ही प्रतिध्वनि |
− | अपने मन को कंकड़ | + | अपने मन को कंकड़ है । |
− | तुम मेरे आसपास सभी जगह ज़िंदा | + | तुम मेरे आसपास सभी जगह ज़िंदा हो । |
− | शत्रु तुम परिस्थिति | + | शत्रु तुम परिस्थिति हो । |
− | अक्स तुम्हारा मेरे जीवन पर पड़ता | + | अक्स तुम्हारा मेरे जीवन पर पड़ता है । |
− | मुझे ग्रहण लगता है | + | मुझे ग्रहण लगता है |
− | सुबह ग्रहण है, शाम ग्रहण लगता | + | सुबह ग्रहण है, शाम ग्रहण लगता है । |
− | मेरे भूगोल की परिधि में तुम ज़िंदा | + | मेरे भूगोल की परिधि में तुम ज़िंदा हो । |
− | किंतु तुम परिस्थिति | + | किंतु तुम परिस्थिति हो । |
− | और परिस्थिति के गमले को फोड़ रहा | + | और परिस्थिति के गमले को फोड़ रहा |
− | अंकुर हूँ, पौधा | + | अंकुर हूँ, पौधा हूँ । |
− | पौधा हूँ एक, मगर | + | पौधा हूँ एक, मगर |
− | जड़ असंख्य, अगणित | + | जड़ असंख्य, अगणित हैं । |
− | हर जड़ में मैं हूँ— | + | हर जड़ में मैं हूँ— |
− | मैं भी अपने संगठनों में प्रतिपल ज़िंदा | + | मैं भी अपने संगठनों में प्रतिपल ज़िंदा हूँ । |
− | अंकुर हूँ | + | अंकुर हूँ |
− | हवा में, गगन में | + | हवा में, गगन में |
− | बाहर भीतर ज़िंदा | + | बाहर भीतर ज़िंदा हूँ । |
+ | </poem> |
18:32, 22 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
तुम मेरे शत्रु हो
मेरी हर अड़चन की जड़ में तुम ज़िंदा हो ।
तुम मेरे शत्रु हो
मेरे सपनों की राखड़ में तुम ज़िंदा हो ।
मेरे चूल्हे में जो राख का बवंडर है
उसके आकार में
तुम्हारा ही मुखड़ा है ।
मेरे मन में जो कौंधा है, जो बिजली है,
उसको तुमने अपने
तरकश में जकड़ा है ।
सहज कल्पनाएँ
मीनारों सी टूट गईं,
इधर उधर फिरती
आकांक्षा की कूबड़ है ।
असफलता का थप्पड़ है,
अपनी ही प्रतिध्वनि
अपने मन को कंकड़ है ।
तुम मेरे आसपास सभी जगह ज़िंदा हो ।
शत्रु तुम परिस्थिति हो ।
अक्स तुम्हारा मेरे जीवन पर पड़ता है ।
मुझे ग्रहण लगता है
सुबह ग्रहण है, शाम ग्रहण लगता है ।
मेरे भूगोल की परिधि में तुम ज़िंदा हो ।
किंतु तुम परिस्थिति हो ।
और परिस्थिति के गमले को फोड़ रहा
अंकुर हूँ, पौधा हूँ ।
पौधा हूँ एक, मगर
जड़ असंख्य, अगणित हैं ।
हर जड़ में मैं हूँ—
मैं भी अपने संगठनों में प्रतिपल ज़िंदा हूँ ।
अंकुर हूँ
हवा में, गगन में
बाहर भीतर ज़िंदा हूँ ।