भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सरनिगूँ<ref>सर झुका हुआ</ref> देख कर तुझे ऐ दोस्त,
मुझको अपना वजूद <ref>अस्तित्त्व</ref> खलता है।
मौत के मुस्तकिल<ref>सतत</ref> तकाजों में,
नासमझ देख करके खिलता है।
हमनें इस तरह निभाये रिस्तेरिश्ते,
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।
157
edits