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"बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

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अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
  
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अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा<br><br>
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बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा  
  
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अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में
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पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में  
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वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा  
  
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वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा <br><br>
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कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा <br><br>
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फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा <br><br>
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फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा
  
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अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा <br><br>
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बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा  
  
अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी <br>
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तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा <br><br>
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वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा  
  
तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के <br>
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हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा<br><br>
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नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा
  
हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत <br>
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हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न  
नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा <br><br>
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अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा
 
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हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न <br>
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अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा<br><br>
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20:35, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा

अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा

कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा

तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा

हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा