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परदेशी / रामधारी सिंह "दिनकर"

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{{KKGlobal}}{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" |अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?  
भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी!
 सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी ? सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी ? 
एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ,
 जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ Iयहाँ।मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ , कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ ? इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी Iपरदेशी।
यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी !
 जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं , आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं Iनहीं।
यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं।
हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी!
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं I हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी ! माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?  महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा , किस से लिपट जुडाता? सबको ज्वाला में जलते देखा Iदेखा।
अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा ;
चलत समय सिकंदर -से विजयी को कर मलते देखा।
चलत समय सिकंदर -से विजयी को कर मलते देखा I  सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी Iपरदेशी।माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ? 
रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर, कुछ क़ब्रों की ओर चले।
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर , कुछ क़ब्रों की ओर चले I  रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले, लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनू मुँह मोड़ चले I  जीवन का मधुमय उल्लास ,चले।
जीवन का मधुमय उल्लास,
औ' यौवन का हास विलास,
 
रूप-राशि का यह अभिमान,
 एक स्वप्न है, स्वप्न अजान Iअजान।
मिटता लोचन -राग यहाँ पर,
 
मुरझाती सुन्दरता प्यारी,
 
एक-एक कर उजड़ रही है
 हरी-भरी कुसुमों की क्यारी Iक्यारी।
मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर
 
जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;
 
वायु, उड़ाकर ले चल मुझको
 
जहाँ-कहीं इस जग से बाहर
 
मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी !
 माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?</poem>
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