"किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर
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− | + | किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से | |
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− | किताबें | + | |
बड़ी हसरत से तकती है | बड़ी हसरत से तकती है | ||
− | महीनों अब | + | महीनों अब मुलाक़ातें नही होती |
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी | जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी | ||
− | अब अक्सर | + | अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर |
बड़ी बैचेन रहती है किताबें | बड़ी बैचेन रहती है किताबें | ||
− | उन्हें अब | + | उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है |
− | जो | + | |
− | जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े है | + | जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे |
− | कोई | + | जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है |
− | कई | + | कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है |
− | बिना पत्तों के | + | कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है |
+ | बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़ | ||
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है | जिन पर अब कोई मानी उगते नही है | ||
− | + | ||
− | अब | + | जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का |
+ | अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है | ||
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर | बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर | ||
− | + | क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है | |
+ | |||
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे | कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे | ||
कभी गोदी में लेते थे | कभी गोदी में लेते थे | ||
− | कभी घुटनों | + | कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर |
− | नीम | + | नीम सज़दे में पढ़ा करते थे |
छूते थे जंबीं से | छूते थे जंबीं से | ||
− | |||
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− | |||
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− | </ | + | वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी |
+ | मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे | ||
+ | सूखे फूल और महके हुए रूक्के | ||
+ | क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे | ||
+ | अब उनका क्या होगा...!! | ||
+ | </poem> |
11:18, 1 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
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किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है
जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का
अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रूक्के
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!