भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - २" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
|पीछे=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १
+
|पीछे=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ -
|आगे=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ३
+
|आगे=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ -
 
|सारणी=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
|सारणी=प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 
+
विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में।
 +
विलसती कल केसर-खौर थी।
 +
असित - पंकज के दल में यथा।
 +
रज – सुरंजित पीत - सरोज की॥२१॥
 +
::मधुरता - मय था मृदु - बोलना।
 +
::अमृत – सिंचित सी मुस्कान थी।
 +
::समद थी जन – मानस मोहती।
 +
::कमल – लोचन की कमनीयता॥२२॥
 +
सबल-जानु विलंबित बाहु थी।
 +
अति – सुपुष्ट – समुन्नत वक्ष था।
 +
वय-किशोर-कला लसितांग था।
 +
मुख प्रफुल्लित पद्म समान था॥२३॥
 +
::सरस – राग – समूह सहेलिका।
 +
::सहचरी मन मोहन - मंत्र की।
 +
::रसिकता – जननी कल - नादिनी।
 +
::मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥२४॥
 +
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
 +
छिटकती क्षिति छू तन की घटा।
 +
बगरती बर दीप्ति दिगंत में।
 +
क्षितिज में क्षणदा-कर कांति सी॥२५॥
 +
::मुदित गोकुल की जन-मंडली।
 +
::जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
 +
::निरखने मुख की छवि यों लगी।
 +
::तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥२६॥
 +
पलक लोचन की पड़ती न थी।
 +
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
 +
छवि-रता बनिता सब यों बनी।
 +
उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥२७॥
 +
::उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
 +
::युवक थे रस की निधि लूटते।
 +
::जरठ को फल लोचन का मिला।
 +
::निरख के सुषमा सुखमूल की॥२८॥
 +
बहु – विनोदित थीं ब्रज – बालिका।
 +
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़तीं।
 +
बलि गईं बहु बार वयोवती।
 +
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥२९॥
 +
::मुरलिका कर - पंकज में लसी।
 +
::जब अचानक थी बजती कभी।
 +
::तब सुधारस मंजु - प्रवाह में।
 +
::जन - समागम था अवगाहता॥३०॥
 +
ढिग सुसोभित श्रीबलराम थे।
 +
निकट गोप – कुमार – समूह था।
 +
विविध गातवती गरिमामयी।
 +
सुरभि थीं सब ओर विराजती॥३१॥
 +
::बज रहे बहु - शृंग - विषाण थे।
 +
::क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
 +
::सरस – राग - समूह अलाप से।
 +
::रसवती - बन थी मुदिता – दिशा॥३२॥
 +
विविध – भाव – विमुग्ध बनी हुई।
 +
मुदित थी बहु दर्शक - मंडली।
 +
अति मनोहर थी बनती कभी।
 +
बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥३३॥
 +
::इधर था इस भाँति समा बँधा।
 +
::उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
 +
::अब न था उसमें रवि राजता।
 +
::किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥३४॥
 +
अरुणिमा – जगती – तल – रंजिनी।
 +
वहन थी करती अब कालिमा।
 +
मलिन थी नव – राग-मयी – दिशा।
 +
अवनि थी तमसावृत हो रही॥३५॥
 +
::तिमिर की यह भूतल - व्यापिनी।
 +
::तरल – धार विकास – विरोधिनी।
 +
::जन – समूह – विलोचन के लिए।
 +
::बन गई प्रति – मूर्ति विराम की॥३६॥
 +
द्युतिमयी उतनी अब थी नहीं।
 +
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
 +
अब नहीं वह थी अवलोकती।
 +
मधुमयी छवि श्री घनश्याम की॥३७॥
 +
::यह अभावुकता तम – पुंज की।
 +
::सह सकी न नभस्थल तारका।
 +
::वह विकाश – विवर्द्धन के लिए।
 +
::निकलने नभ मंडल में लगी॥३८॥
 +
तदपि दर्शक - लोचन - लालसा।
 +
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
 +
यह विलोक विलोचन दीनता।
 +
सकुचने सरसीरुह भी लगे॥३९॥
 +
::खग – समूह न था अब बोलता।
 +
::विटप थे बहुत नीरव हो गए।
 +
::मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
 +
::अब न यंत्र बने तरु - वृंद थे॥४०॥
 
</poem>
 
</poem>

23:06, 6 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में।
विलसती कल केसर-खौर थी।
असित - पंकज के दल में यथा।
रज – सुरंजित पीत - सरोज की॥२१॥
मधुरता - मय था मृदु - बोलना।
अमृत – सिंचित सी मुस्कान थी।
समद थी जन – मानस मोहती।
कमल – लोचन की कमनीयता॥२२॥
सबल-जानु विलंबित बाहु थी।
अति – सुपुष्ट – समुन्नत वक्ष था।
वय-किशोर-कला लसितांग था।
मुख प्रफुल्लित पद्म समान था॥२३॥
सरस – राग – समूह सहेलिका।
सहचरी मन मोहन - मंत्र की।
रसिकता – जननी कल - नादिनी।
मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥२४॥
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
छिटकती क्षिति छू तन की घटा।
बगरती बर दीप्ति दिगंत में।
क्षितिज में क्षणदा-कर कांति सी॥२५॥
मुदित गोकुल की जन-मंडली।
जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
निरखने मुख की छवि यों लगी।
तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥२६॥
पलक लोचन की पड़ती न थी।
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
छवि-रता बनिता सब यों बनी।
उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥२७॥
उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
युवक थे रस की निधि लूटते।
जरठ को फल लोचन का मिला।
निरख के सुषमा सुखमूल की॥२८॥
बहु – विनोदित थीं ब्रज – बालिका।
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़तीं।
बलि गईं बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥२९॥
मुरलिका कर - पंकज में लसी।
जब अचानक थी बजती कभी।
तब सुधारस मंजु - प्रवाह में।
जन - समागम था अवगाहता॥३०॥
ढिग सुसोभित श्रीबलराम थे।
निकट गोप – कुमार – समूह था।
विविध गातवती गरिमामयी।
सुरभि थीं सब ओर विराजती॥३१॥
बज रहे बहु - शृंग - विषाण थे।
क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
सरस – राग - समूह अलाप से।
रसवती - बन थी मुदिता – दिशा॥३२॥
विविध – भाव – विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक - मंडली।
अति मनोहर थी बनती कभी।
बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥३३॥
इधर था इस भाँति समा बँधा।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
अब न था उसमें रवि राजता।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥३४॥
अरुणिमा – जगती – तल – रंजिनी।
वहन थी करती अब कालिमा।
मलिन थी नव – राग-मयी – दिशा।
अवनि थी तमसावृत हो रही॥३५॥
तिमिर की यह भूतल - व्यापिनी।
तरल – धार विकास – विरोधिनी।
जन – समूह – विलोचन के लिए।
बन गई प्रति – मूर्ति विराम की॥३६॥
द्युतिमयी उतनी अब थी नहीं।
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
अब नहीं वह थी अवलोकती।
मधुमयी छवि श्री घनश्याम की॥३७॥
यह अभावुकता तम – पुंज की।
सह सकी न नभस्थल तारका।
वह विकाश – विवर्द्धन के लिए।
निकलने नभ मंडल में लगी॥३८॥
तदपि दर्शक - लोचन - लालसा।
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
यह विलोक विलोचन दीनता।
सकुचने सरसीरुह भी लगे॥३९॥
खग – समूह न था अब बोलता।
विटप थे बहुत नीरव हो गए।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
अब न यंत्र बने तरु - वृंद थे॥४०॥