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आर्य्य-भूमि
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जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,
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रामादि राजा अति कीर्तिमान।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।।
+
 
+
2
+
 
+
जहाँ हुए साधु हा महान्
+
 
+
थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
 
+
3
+
 
+
जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,
+
 
+
स्वदेश का भी अभिमान भारी ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि, 
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
4
+
 
+
हुए प्रजापाल नरेश नाना,
+
 
+
प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
5
+
 
+
वीरांगना भारत-भामिली थीं,
+
 
+
वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।
+
 
+
जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
 
+
6
+
 
+
स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष, 
+
 
+
हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
7
+
 
+
स्देश-कल्याण सुपुण्य जान,
+
 
+
जहाँ हुए यत्न सदा महान।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
8
+
 
+
न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था,
+
 
+
देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
9
+
 
+
कोई कभी धीर न छोड़ता था,
+
 
+
न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
10
+
 
+
स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,
+
 
+
जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
+
 
+
11
+
 
+
अनेक थे वर्णे तथापि सारे
+
 
+
थे एकताबद्ध जहाँ हमारे
+
 
+
जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्य भूमि ।।
+
 
+
12
+
 
+
थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,
+
 
+
जहां हुए शुर यशोधिकारी ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,
+
+
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
+
 
+
13
+
 
+
दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,
+
 
+
छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
+
 
+
14
+
 
+
नये नये देश जहाँ अनेक,
+
 
+
जीत गये थे नित एक एक ।
+
 
+
जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,
+
 
+
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
+
 
+
15
+
 
+
विचार एसे जब चित्त आते,
+
 
+
विषाद पैदा करते, सताते ।
+
 
+
न क्या कभी देव दया करेंगे ?
+
 
+
न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?
+
 
+
 
+
(अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित )
+
 
+
 
+
 
+
कविता का नामः आर्यभूमि
+
 
+
कविः महावीर प्रसाद द्विवेदी
+
 
+
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
+
0000000
+
 
+
 
+
 
+
ग्राम्य जीवन
+
 
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+
छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं
+
 
+
रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं
+
 
+
बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी चहुँ ओर है
+
 
+
द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।
+
 
+
 
+
 
+
शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई
+
 
+
देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई
+
 
+
कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान
+
  
दिवस विताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।
 
  
 +
स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br>
 +
सो गये हैं अब सारे तारे<br>
 +
चाँद ने भी ली विदाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई.<br>
  
 +
मचलते पंछी पंख फैलाते<br>
 +
ठंडे हवा के झोंके आते<br>
 +
नयी किरण की नयी परछाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप
+
कहीं ईश्वर के भजन हैं होते<br>
 +
लोग इबादत में मगन हैं होते<br>
 +
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप
+
मोहक लगती फैली हरियाली<br>
 +
होकर चंचल और मतवाली<br>
 +
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं
+
फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ<br>
 +
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ<br>
 +
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई<br>
 +
देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
  
देने को फुलेस –सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।
+
-------------------------------------
 +
आनंद गुप्ता<br>
 +
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -        <br>      कवि - अहमद फ़राज़  / <br>
 +
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये<br>
 +
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//<br>
 +
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला <br>
 +
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //<br>
 +
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना <br>
 +
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //<br>
 +
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये <br>
 +
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //<br>
 +
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा <br>
 +
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //<br>
 +
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़" <br>
 +
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//<br>
 +
---  ---    प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------<br>
 +
- - -  --  ---    ---    ---        ----        -----    ------  ----      ---
  
  
 +
कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
  
पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है
+
छिप के कारोबार करना चाहता है
  
हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है
+
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
  
खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप
 
  
यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप
+
आसमानों के तले रहता है लेकिन
  
 +
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
  
  
कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं
+
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
  
दौड़-दौड़ के थक  जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं
+
रेत का व्यौपार करना चाहता है
  
बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है
 
  
मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है
+
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
  
 +
जाने क्या तैयार करना चाहता है ।
  
गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल
 
  
चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल
+
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
  
ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार
+
घूम कर इक वार करना चाहता है
  
झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार
 
  
 +
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
  
कविता का नामः ग्राम्य जीवन
+
सरहदों को पार करना चाहता है ।
  
कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय
 
  
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
 
  
टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था ।
+
  प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
  
 +
--------- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
 +
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम।
 +
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
  
000000000
 
  
 +
कविता का शीर्षक
 +
'''फुर्सत नहीं है'''
  
 +
कवि '''पवन चन्दन'''
 +
प्रेषक अविनाश वाचस्पति
  
कुररी के प्रति
+
हम बीमार थे
 +
यार-दोस्त श्रद्धांजलि
 +
को तैयार थे
 +
रोज़ अस्पताल आते
 +
हमें जीवित पा
 +
निराश लौटे जाते
  
 +
एक दिन हमने
 +
खुद ही विचारा
 +
और अपने चौथे
 +
नेत्र से निहारा
 +
देखा
 +
चित्रगुप्त का लेखा
  
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
+
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
 +
शायद
 +
यमराज लेट हो गया है
 +
या फिर
 +
उसकी नज़र फिसल गई
 +
और हमारी मौत
 +
की तारीख निकल गई
 +
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
 +
रो रहे हैं
 +
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
  
पिछड़ा था तू कहाँ, रहा जो कर इतनी रात
+
किसी ने कहा
 +
यमराज का भैंसा
 +
बीमार हो गया होगा
 +
या यम
 +
ट्रेन में सवार हो गया होगा
 +
और ट्रेन हो गई होगी लेट
 +
आप करते रहिए
 +
अपने मरने का वेट
 +
हो सकता है
 +
एसीपी में खड़ी हो
 +
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
 +
और मौत बोनस पा गई हो
 +
आपसे पहले
 +
औरों की गई हो
  
निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्न्द
+
जब कोई
 +
रास्ता नहीं दिखा
 +
तो हमने
 +
यम के पीए को लिखा
 +
सब यार-दोस्त
 +
हमें कंधा देने को रुके हैं
 +
कुछ तो हमारे मरने की
 +
छुट्टी भी कर चुके हैं
 +
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
 +
सारे
 +
इस बात से डरे हैं
 +
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
 +
हम नहीं मरे
 +
तो क्या खुद मरेंगे
 +
वरना बॉस को
 +
क्या कहेंगे
  
अन्य विग भी निज़ नीड़ों में सोते हैं सानन्द
+
इतना लिखने पर भा
 +
कोई जवाब नहीं आया
 +
तो हमने फ़ोन घुमाया
 +
जब मिला फ़ोन
 +
तो यम बोला. . .कौन?
 +
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
 +
मौत की
 +
लाइन में खड़े हैं
 +
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
 +
हमें जीवन से
 +
छुटकारा दिला
  
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तत गात
+
क्या हमारी मौत
 +
लाइन में नहीं है
 +
या यमदूतों की कमी है
  
पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?
+
नहीं
 +
कमी तो नहीं है
 +
जितने भरती किए
 +
सब भारत की तक़दीर में हैं
 +
कुछ असम में हैं
 +
तो कुछ कश्मीर में हैं
  
 +
जान लेना तो ईज़ी है
 +
पर क्या करूँ
 +
हरेक बिज़ी है
  
 +
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
 +
अभी तो हमें भी
 +
मरने की फ़ुरसत नहीं है
  
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?
+
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
 +
मेरी भी
 +
मौत की तारीख
 +
निकल चुकी है
 +
मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
  
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
+
...
 +
कविता का शीर्षक
 +
'''मज़ा'''
  
क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?
+
कवि  '''अविनाश वाचस्पति'''
  
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
+
आज क्या हो रहा है
 +
और क्या होने वाला है?
  
या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
+
इसे देखकर
 +
जान-समझकर
 +
परेशान हैं कुछ
 +
और
 +
खुश होने वाले भी अनेक।
  
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?
+
मज़े उन्हीं के हैं
 +
जिन पर इन चीज़ों का
 +
असर नहीं पड़ता।
  
 +
वे जानते हैं
 +
जो होना है
 +
वो तो होना ही है
 +
और हो भी रहा है
 +
तो फिर
 +
बेवजह बेकार की
 +
माथा-पच्ची करने से
 +
क्या लाभ?
  
  
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?
+
संजय सेन सागर
  
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
+
मां तुम कहां हो
  
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है
  
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
+
वो तेरा सीने से लगाना,
  
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
 
  
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?
 
  
  
 +
आंचल में सुलाना याद आता है।
  
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
+
क्यों तुम मुझसे दूर गई,
  
या तुझको निज-जन्म भूमी की सता रही है याद ?
 
  
विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
 
  
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
 
  
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
+
किस बात पर तुम रूठी हो,
  
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?
+
मैं तो झट से हंस देता था।
  
  
  
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
 
  
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
+
पर तुम तो
  
वहाँ कौन नक्षत्र –वृन्द करता आलोक प्रदान ?
+
अब तक रूठी हो।
  
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?
 
  
कैसा स्निग्ध्र समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
 
  
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?
 
  
(सरस्वती, जुलाई, 1920)
+
रोता है हर पल दिल मेरा,
  
 +
तेरे खो जाने के बाद,
  
कविता का नामः कुर्री के प्रति
 
  
कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय
 
  
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
 
  
 +
गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,
  
बद्र की ग़ज़लें
+
तेरे सो जाने के बाद।
  
  
एक
 
  
  
 +
मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,
  
 +
अब तक दिल में भीनी है।
  
  
दो
 
  
  
 +
इस दुनिया में न कुछ अपना,
  
 +
सब पत्थर दिल बसते हैं,
  
  
  
तीन
 
  
 +
एक तू ही सत्य की मूरत थी,
  
 +
तू भी तो अब खोई है।
  
  
  
'''नवीन कल्पना करो'''
 
  
 +
आ जाओ न अब सताओ,
  
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
+
दिल सहम सा जाता है,
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,  
+
  
              तुम कल्पना करो ।
 
  
 
  
अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है
 
  
मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है
+
अंधेरी सी रात में
  
हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है
+
मां तेरा चेहरा नजर आता है।
  
अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है
 
  
लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की-
 
  
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
 
  
                  तुम कामना करो । 
+
आ जाओ बस एक बार मां
  
+
अब ना तुम्हें सताउंगा,
  
तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है
 
  
मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है
 
  
घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है
 
  
पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है
+
चाहे निकले
  
टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का-
+
जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।
  
तुम साधना करो, अनंत साधना करो,
 
  
                तुम साधना करो ।
 
  
 
  
हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
+
आ जाओ ना मां तुम,
  
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
+
मेरा दम निकल सा जाता है।
  
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
 
  
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना
 
  
बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी
 
  
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
+
हर लम्हा इसी तरह ,
  
                तुम भावना करो ।
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।
  
कविः गोपाल सिंह नेपाली
 
  
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
+
-------------------.

12:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण


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*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड़ सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.


आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"

इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//

--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
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कवि - गुलाम मुर्तुजा राही

छिप के कारोबार करना चाहता है

घर को वो बाज़ार करना चाहता है।


आसमानों के तले रहता है लेकिन

बोझ से इंकार करना चाहता है ।


चाहता है वो कि दरिया सूख जाये

रेत का व्यौपार करना चाहता है ।


खींचता रहा है कागज पर लकीरें

जाने क्या तैयार करना चाहता है ।


पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन

घूम कर इक वार करना चाहता है ।


दूर की कौडी उसे लानी है शायद

सरहदों को पार करना चाहता है ।


 प्रेषक - संजीव द्विवेदी -

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अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।


कविता का शीर्षक फुर्सत नहीं है

कवि पवन चन्दन प्रेषक अविनाश वाचस्पति

हम बीमार थे यार-दोस्त श्रद्धांजलि को तैयार थे रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते

एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो

जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम बोला. . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है

नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं

जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

... कविता का शीर्षक मज़ा

कवि अविनाश वाचस्पति

आज क्या हो रहा है और क्या होने वाला है?

इसे देखकर जान-समझकर परेशान हैं कुछ और खुश होने वाले भी अनेक।

मज़े उन्हीं के हैं जिन पर इन चीज़ों का असर नहीं पड़ता।

वे जानते हैं जो होना है वो तो होना ही है और हो भी रहा है तो फिर बेवजह बेकार की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ?


संजय सेन सागर

मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,



आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,



किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।



पर तुम तो

अब तक रूठी हो।



रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,



गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।



मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।



इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,



एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।



आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,



अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।



आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,



चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।



आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।



हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।



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