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"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 21" के अवतरणों में अंतर

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'''पद 201 से 210 तक'''
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(205)
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जेा न भज्यो चहै हरि-सुरतरू। 
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तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करू।
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सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरू।
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काम-क्रोध अरू लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरू।।
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श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरू।
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नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरू।।
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इहै भगति, बैराग्य यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरू।
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तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरू।।
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07:27, 17 जून 2012 के समय का अवतरण