भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 20" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)
 
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
  
 
काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,  
 
काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,  
 
 
बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।  
 
बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।  
  
 
निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
 
निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
   
+
  दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।  
दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।  
+
  
 
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,  
 
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,  
 
 
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।  
 
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।  
  
 
‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 
‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 
 
  बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।
 
  बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।
 +
 +
काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,
 +
बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।
 +
 +
निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
 +
दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।
 +
 +
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
 +
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।
 +
 +
‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 +
बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।
 +
 +
।रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
 +
सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको।।
 +
 +
मीजि-मीजि हाथ, धुनैं माथ दसमाथ-तिय,
 +
‘तुलसी’ तिलौ न भयो बाहेर अगारको।।
 +
 +
सबु असबाबु डाढ़ो , मैं न  काढ़ो, तैं  न काढ़ो,
 +
जिसकी परी, सँभारे सहन-भँडार को।
 +
 +
खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु,
 +
बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजारको।12।
 +
 +
 +
रावन की रानी विलखानी कहै जातुधानीं,
 +
हाहा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथसों।
 +
 +
काहे मेंघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ,
 +
धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों।
 +
 +
काहे अतिकाय!काहे , काहे रे अकंपन!
 +
अभागे तीय त्यागे भोड़े भागे जात साथ सों।
 +
 +
‘तुलसी’ बढ़ाई बादि सालते बिसाल बाहैं,
 +
याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों।13। 
 +
 +
 +
हाट-बाट कोट-ओट, अटनि, अगार, पौरि,
 +
खोरि-खोरि दौरि -दौरि दीन्हीं अति आगि है।
 +
 +
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू।
 +
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं।
 +
 +
बालधाी फिरावै , बार बार झहरावै, झरै ,
 +
बुँदिया-सी लंक पघिलाइ पाग पागिहै।
 +
 +
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं ,
 +
चित्रहू के कपि सो निसाचरू न लागिहै।14।
 +
 +
लगी , लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ-तहाँ,
 +
धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
 +
 +
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंध अंध, 
 +
कहै बारे-बूढे़ ‘बारि ,बारि’ बार बारहीं।।
 +
 +
हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज,
 +
भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि -खौंदि डारहीं।
 +
 +
नाम लै चिलात , बिललात, अकुलात अति,
 +
‘तात तात! ’तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं।15।
  
 
</poem>
 
</poem>

19:49, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

 
(लंकादहन -3)


काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,
बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।

निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
 दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।

छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।

‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।

काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,
 बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।

निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।

छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
 साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।

‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।

।रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको।।

मीजि-मीजि हाथ, धुनैं माथ दसमाथ-तिय,
 ‘तुलसी’ तिलौ न भयो बाहेर अगारको।।

 सबु असबाबु डाढ़ो , मैं न काढ़ो, तैं न काढ़ो,
 जिसकी परी, सँभारे सहन-भँडार को।

खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु,
बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजारको।12।


 रावन की रानी विलखानी कहै जातुधानीं,
 हाहा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथसों।

काहे मेंघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ,
धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों।

 काहे अतिकाय!काहे , काहे रे अकंपन!
अभागे तीय त्यागे भोड़े भागे जात साथ सों।

 ‘तुलसी’ बढ़ाई बादि सालते बिसाल बाहैं,
याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों।13।


हाट-बाट कोट-ओट, अटनि, अगार, पौरि,
खोरि-खोरि दौरि -दौरि दीन्हीं अति आगि है।

 आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू।
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं।

 बालधाी फिरावै , बार बार झहरावै, झरै ,
 बुँदिया-सी लंक पघिलाइ पाग पागिहै।

‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं ,
 चित्रहू के कपि सो निसाचरू न लागिहै।14।

 लगी , लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ-तहाँ,
 धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं।

छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंध अंध,
कहै बारे-बूढे़ ‘बारि ,बारि’ बार बारहीं।।

हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज,
भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि -खौंदि डारहीं।

नाम लै चिलात , बिललात, अकुलात अति,
‘तात तात! ’तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं।15।