"वृन्द के दोहे / भाग १" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
|||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1<br><br> | देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1<br><br> | ||
− | अपनी | + | अपनी पहुँच विचारिकै, करतब करिये दौर ।<br> |
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2<br><br> | तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2<br><br> | ||
18:52, 22 जून 2007 के समय का अवतरण
नीति के दोहे
रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1
अपनी पहुँच विचारिकै, करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 3
विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 4
बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5
मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8
अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9
लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 10