"मै तुम्हे ढूंढने / कुमार विश्वास" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman  (चर्चा | योगदान)   | 
				|||
| पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}}  | {{KKGlobal}}  | ||
{{KKRachna  | {{KKRachna  | ||
| − | |  | + | |रचनाकार=कुमार विश्वास  | 
| − | + | |अनुवादक=  | |
| − | + | |संग्रह=  | |
| − | {{  | + | }}  | 
| + | {{KKCatKavita}}  | ||
<poem>  | <poem>  | ||
| पंक्ति 40: | पंक्ति 41: | ||
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक    | मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक    | ||
रोज आता रहा, रोज जाता रहा    | रोज आता रहा, रोज जाता रहा    | ||
| − | |||
</poem>  | </poem>  | ||
12:13, 1 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक 
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा 
जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे 
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक गई 
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद् 
मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं 
प्राण के पृष्ठ पर गीत की अल्पना 
तुम मिटाती रही मैं बनाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई 
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा 
एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी 
गहरा ठहरा जल बनी जिन्दगी 
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ 
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी 
दृष्टि आकाश में आस का एक दिया 
तुम  बुझती  रही, मैं  जलाता  रहा 
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई 
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा 
तुम चली गई तो मन अकेला हुआ 
सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ 
कब भी लौटी नई खुशबुओं में सजी 
मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ 
खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर 
रूठती तुम रही मैं मानता रहा 
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक 
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
	
	